शौर्य की दुनिया / शख्सियत /
गिरीश कर्नाड एक जाने-माने राइटर, एक्टर, डायरेक्टर और नाटककार थे. इसके साथ ही सामाजिक मुद्दों पर भी वो खुलकर अपनी राय दुनिया के सामने रखते थे. बाबरी मस्जिद को गिराने का विरोध करने से लेकर पीएम मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए साइन किए पीटिशन तक में उनकी बेबाकी झलकती है.

उन्होंने हिंदी सिनेमा और थिएटर में भी ख़ूब काम किया. उनकी गिनती ऐसी शख़्सियतों में होती है जिन्होंने भारतीय थिएटर के लिए सबसे गंभीर नाटकीय लेखन की नींव रखी थी. गिरीश कर्नाड जी को लिखने का बहुत शौक़ था. साहित्य में रूची होने के चलते ही उन्होंने रंगमंच के लिए कई नाटक भी लिखे. 'ययाति', 'अंजु मल्लिगे', 'तुगलक', 'हयवदन', 'अग्निमतु माले', 'नागमंडल' ,'अग्नि और बरखा' जैसे नाटक उन्होंने लिखे थे. उनके इन नाटकों की दर्शकों ने ख़ूब प्रशंसा की थी.
गिरीश कर्नाड जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे कई अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था. उन्होंने 1970 में कन्नड़ फ़िल्म 'संस्कार' से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने कन्नड़, तमिल, मलयालम, तेलुगू, मराठी और हिंदी फ़िल्मों में बेहतरीन अभिनय से दर्शकों का दिल जीता था.
उन्होंने 'निशांत', 'मंथन', 'पुकार', 'डोर', 'टाइगर ज़िंदा है', 'एक था टाइगर' जैसी हिंदी फ़िल्मों में काम किया था. गिरीशी जी ने छोटे पर्दे में भी अपना हाथ आज़माया था, इसमें 'मालगुड़ी डेज़' सबसे ख़ास है. इसमें उन्होंने शो के लीड कैरेक्टर स्वामी के पिता की भूमिका निभाई थी. लोग भले ही उन्हें फ़िल्में और थिएटर के लिए जानते हों मगर बचपन में वो एक कवि बनना चाहते थे. गिरीश कर्नाड ने अपने एक इंटरव्यू में इस बात का ख़ुलासा किया है.
कहते हैं- ’मेरे माता-पिता को नाटकों का शौक़ था. उनके साथ मैं भी नाटक देखने जाता था. यहीं से नाटकों ने मेरे मन में जगह बना ली थी. मैं बचपन से ही ‘यक्षगान’ का बहुत बड़ा फ़ैन रहा हूं. बचपन से ही मैं अंग्रेज़ी भाषा का कवि बनने का सपना देखता था. यहां तक कि जब मैं अपना पहला और सबसे प्रिय नाटक 'ययाति' लिख रहा था, तब नाटकों में रुचि होने के बावजूद मैंने नाटककार बनने का नहीं सोचा था.‘
उनकी आख़िरी हिंदी फ़िल्म 'टाइगर ज़िंदा है' थी. अपनी फ़िल्मों और नाटकों के ज़रिये वो सदा हमारे साथ रहेंगे.