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मुसीबत पड़ते ही पूंजी ने श्रम को पराया किया

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        नजरिया   / शौर्यपथ / कोरोना वैश्विक महामारी ने जिन मुद्दों और समस्याओं की तरफ सरकारों और लोगों का सर्वाधिक ध्यान आकर्षित किया है, उनमें से प्रवासी कामगारों की समस्या सबसे गंभीर है। नेशनल सैंपल सर्वे एवं भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के अनुसार, प्रवासी मजदूरों की अधिकांश जनसंख्या पिछड़े क्षेत्रों, राज्यों, आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों, विशेष तौर पर एसटी, एससी एवं ओबीसी से संबंधित है। उदाहरण के लिए, जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार अंतर-राज्यीय प्रवास की 50 प्रतिशत जनसंख्या उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से संबंधित है। इसमें उत्तर प्रदेश एवं बिहार का हिस्सा 37 प्रतिशत है। प्रवास निम्न आय वाले परिवारों की आजीविका का मुख्य स्रोत बन गया है, इसीलिए प्रतिवर्ष 4.5 प्रतिशत की दर से अंतर-राज्यीय प्रवास में वृद्धि हो रही है।
कोरोना वायरस संकट ने हमारा ध्यान उन समस्याओं की ओर आकर्षित किया है, जिनका सामना इन प्रवासी श्रमिकों को आए दिन करना पड़ता है। क्या अपने ही देश में संविधान प्रदत्त अधिकारों के बावजूद कामगारों को प्रवासी कहना, उनके साथ परायों जैसा व्यवहार करना उचित है? प्रवासी शब्द मात्र ही उन्हें बेघर, मेजबान राज्य पर निर्भर और आत्म स्वाभिमान से वंचित करता है। अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘श्रम पूंजी से पहले और स्वतंत्र है। पूंजी केवल श्रम का फल है और पूंजी कभी भी अस्तित्व में नहीं आ सकती थी, यदि श्रम का अस्तित्व नहीं होता। अत: श्रम पूंजी से श्रेष्ठ है और यह अधिक महत्व का हकदार है।’ श्रम भारत का एक आकर्षण है, लेकिन तब भी श्रमिक को उचित स्थान और अधिकार प्राप्त नहीं हैं। जहां एक ओर, कामगारों की समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। काम और श्रम को उचित महत्व व सम्मान देने की जरूरत है। वहीं दूसरी ओर, मजदूरों की समस्याओं के दूरगामी समाधान के लिए सरकारी प्रयासों को और व्यवस्थित करने की जरूरत है। इस प्रयास में कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है। पहला, आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय द्वारा 2015 में पार्थ मुखोपाध्याय की अध्यक्षता में 18 सदस्यीय कार्यकारी समूह बनाया गया था, जिसने प्रवासी कामगारों की समस्या पर जो सिफारिशें की थीं, उन्हें लागू करने की जरूरत है। दूसरा, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए एक व्यापक नीति बननी चाहिए, ताकि उन्हें काम करने की उचित परिस्थितियां, समय पर मजदूरी, उचित वेतन, अवकाश एवं कार्यस्थल पर सुरक्षा मिले। तीसरा, सभी प्रवासी मजदूरों की कार्यस्थल पर ही खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ‘वन नेशन-वन राशन कार्ड स्कीम’ को प्रभावी बनाया जाए, ताकि कोई मजदूर किसी भी राज्य में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का लाभ उठा सके।
चौथा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत मोटा अनाज, दाल, तेल जैसी जरूरी सामग्रियों को शामिल किया जा सकता है। इससे श्रमिकों को पोषण भी सही मिलेगा। पांचवां, श्रमिकों के बच्चों की शिक्षा के लिए कार्यस्थल पर ही श्रमिक स्कूल खोले जा सकते हैं, जो दूसरे कार्यस्थलों पर चल रहे ऐसे ही श्रमिक स्कूलों से जुडे़ हों, ताकि जब मजदूर एक जगह से दूसरी जगह जाएं, तो उनके बच्चों की शिक्षा बाधित या प्रभावित न हो। छठा, मनरेगा के अंतर्गत कार्य दिवसों की संख्या 100 से बढ़ाकर 200 की जा सकती है। सातवीं, अत्यधिक गरीब लोगों की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी किसी योजना पर विचार किया जा सकता है। सरकारें सुनिश्चित करें कि उनके पास प्रवासी श्रमिकों का पर्याप्त डाटा रहे, ताकि कोई फैसला लेने में आसानी हो। योजनाओं के जरिए मजदूरों को रजिस्ट्रेशन के लिए प्रेरित करना चाहिए।
हमें प्रवासियों की समस्या को संपूर्णता में देखना होगा। तात्कालिक के साथ-साथ दीर्घकालिक रणनीति बनाने की जरूरत है। शहरों के साथ-साथ गांवों में भी लाभदायक रोजगार सृजित करने होंगे। इसके लिए ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान देना होगा। हम अपनी विशाल आबादी का फायदा तभी उठा सकेंगे, जब हम अपने युवाओं को प्रशिक्षित कर रोजगार देंगे। इस दिशा में सामूहिक प्रयासों की जरूरत है, ताकि मेहनतकश समाज को गरिमामय जीवन दिया जा सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सत्यपाल सिंह मीना, राजस्व अधिकारी

 

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