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क्या मंत्रिमंडल विस्तार में जातीय समीकरण जरूरी हैं, या काबिलियत और विकास की सोच? Featured

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सम्पादकीय विश्लेषण (शरद पंसारी )

   रायपुर। शौर्यपथ। छत्तीसगढ़ की राजनीति एक बार फिर मंत्रिमंडल विस्तार की संभावनाओं को लेकर गर्म है। वर्तमान भाजपा सरकार में 11 मंत्री कार्यरत हैं, जबकि दो पद रिक्त हैं। ऐसे में दावेदारों की लंबी सूची और राजनीतिक हलकों में गूंजती चर्चाओं के बीच एक बड़ा सवाल फिर से खड़ा हो गया है—क्या मंत्री चयन में जातिगत संतुलन ज़रूरी है, या फिर योग्यता, अनुभव और विकास के प्रति सोच को प्राथमिकता मिलनी चाहिए?

जनता ने कई बार दिया है जाति से ऊपर उठकर फैसला

राजनीति में जातीय समीकरण लंबे समय से एक निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं, लेकिन हालिया चुनाव परिणाम बताते हैं कि जनता अब धीरे-धीरे इस सीमित सोच से ऊपर उठ रही है। रायपुर दक्षिण से वर्षों तक विधायक रहे बृजमोहन अग्रवाल के सांसद बनने के बाद हुए उपचुनाव में सुनील सोनी ने बड़ी जीत दर्ज की, यह दिखाता है कि जातिगत फैक्टर नहीं, बल्कि कार्य और छवि ही निर्णायक भूमिका में थे।

इसी तरह, दुर्ग विधानसभा सीट से गजेंद्र यादव की जीत भी यह स्पष्ट करती है कि जनता ने सिर्फ जातीय समीकरण नहीं, बल्कि मजबूत जनसंपर्क और विकास के मुद्दों पर मतदान किया।

मंत्रिमंडल में अनुभव बनाम नवाचार

प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था में एक मंत्री पर पूरे विभाग का भार होता है। ऐसे में अनुभवहीनता कई बार निर्णय क्षमता को प्रभावित करती है। वर्तमान मंत्रिपरिषद में कुछ मंत्री ऐसे हैं जिन्होंने अपनी सक्रियता और कार्यशैली से जनता का विश्वास अर्जित किया है, परंतु अनुभव की दृष्टि से कई विभागों में शून्यता भी देखी गई है।

अब जब विस्तार की घड़ी नजदीक है, तो यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि पार्टी नेतृत्व अनुभव और प्रशासनिक दक्षता को प्राथमिकता देगा या फिर सिर्फ क्षेत्रीय और जातीय संतुलन को ध्यान में रखकर निर्णय करेगा।

अनुभवी नामों की चर्चा जो हो सकते हैं मंत्रिमंडल का हिस्सा

राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज़ है कि यदि अनुभव को महत्व दिया गया, तो अमर अग्रवाल, अजय चंद्राकर, लता उसेंडी और राजेश मूणत जैसे वरिष्ठ विधायक मंत्रिपरिषद में वापसी कर सकते हैं। इन सभी नेताओं का प्रशासनिक अनुभव और जनता के बीच अच्छी पकड़ रही है।

जनता को चाहिए परिणाम, न कि पदों की बाजीगरी

सवाल सीधा और सटीक है — आम जनता को इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन मंत्री बनता है, फर्क इससे पड़ता है कि उनके क्षेत्र में सड़क बनेगी या नहीं, पानी आएगा या नहीं, अस्पताल और स्कूल कितने मजबूत होंगे।

मंत्रिमंडल विस्तार में अगर यही मूल भावना प्राथमिक होगी, तो न सिर्फ सरकार की छवि मजबूत होगी, बल्कि जनता का भरोसा भी नई ऊंचाई पर पहुंचेगा।

निष्कर्ष:
अब निर्णय सत्ता के केंद्र में बैठे नेताओं के हाथ में है — क्या वे विकास को प्राथमिकता देंगे, या समीकरणों में उलझकर मौके गंवा देंगे? आने वाला वक्त इसका जवाब जरूर देगा, लेकिन जनता को अब सिर्फ एक चीज़ चाहिए — परिणाम।

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शौर्यपथ

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