September 30, 2025
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शौर्य की बाते ( सम्पादकीय )

शौर्य की बाते ( सम्पादकीय ) (189)

डॉ नीता मिश्रा, सहायक प्राध्यापक, शहीद गुण्डाधूर कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, जगदलपुर

शौर्यपथ लेख।

भारत में रेबीज से होने वाली मौतें एक बार फिर राष्ट्रीय बहस का विषय बन गई हैं। हाल ही में दिल्ली और अन्य राज्यों में रेबीज के मामलों में वृ‌द्धि ने सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने पर मजबूर कर दिया। अदालत ने सख्त निर्देश जारी किए हैं, जिससे देश की आवारा कुत्तों की नीति पर सवाल उठने लगे हैं। रेबीज़ जैसी गंभीर बीमारी के प्रति आवश्यक जागरूकता कि कमी ही पशुओ एवं मनुष्यों में होने वाले मृत्यु दर का मुख्य कारण है जिसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सहभागिता से ही नियंत्रित किया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रतिवर्ष जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से 28 सितम्बर को विश्व रेबीज़ दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस परिपेक्ष्य में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रिय रेबीज़ नियंत्रण कार्यक्रम, रेबीज़ उन्मूलन हेतु राष्ट्रिय कार्य योजना संचालित की जा रही है जिसके अंतर्गत "2030 तक जीरो रेबीज़" का लक्ष्य रखा गया है।

*रेबीज़ क्या है?*

रेबीज़ पशुओ से इंसानों में होने वाला एक जानलेवा घातक बिमारी है जो आमतौर पर किसी जानवर के काटने या खरोचने से फैलता है, उदाहरण के लिए, आवारा कुत्तों, बिल्लियों और चमगादड़ों के काटने से, जिसके एक बार लक्षण परिलक्षित होने के बाद पशुओ एवं इंसानों में भी कोई इलाज उपलब्ध नही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कि एक रिपोर्ट अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 18000-20000 लोगो कि रेबीज़ के कारण मृत्यु होती है जिसमे छत्तीसगढ़ भी टॉप 10 राज्यों में से एक है। कुत्तो के काटने से होने वाली मृत्यु के ज्यादातर शिकार 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे होते है।

*रेबीज़ कैसे होता है?*

यह बिमारी रेबीज़ वायरस (रेब्ड़ो वायरस) के संक्रमण के कारण होता है, इसीलिए इस बिमारी को रेबीज़ कहते है। यह वायरस संक्रमित रेबिड जानवरों की लार के ज़रिए फैलता है। संक्रमित जानवर किसी दूसरे जानवर या व्यक्ति को काटकर वायरस फैला सकते हैं। दुर्लभ मामलों में, रेबीज़ तब फैल सकता है जब संक्रमित लार किसी खुले घाव या श्लेष्म झिल्ली, जैसे कि मुंह या आंखों में चली जाती है। इसके अतिरिक्त संक्रमित पशुओ या संक्रमित मनुष्य के अथवा उनके शारीर से होने वाले विभिन्न स्त्राव के संपर्क में आने से भी रेबीज़ बिमारी होने की आशंका रहती है।

*रेबीज़ बिमारी के पशुओ में क्या लक्षण दिखाई देते है?*

पालतू पशुओ के शुरुवाती लक्षण बुखार, भूख न लगना, दर्द, व्यवहार में परिवर्तन, पशुओ का अत्यधिक आक्रामक (furious form) या अत्यधिक शांत हो जाना (dumb form), मुंह से अत्यधिक झाग निकलना, अनावश्यक भौंकना या चिल्लाना, जीभ लटकना, अतिउत्तेजित होकर सभी पर आक्रमण करना, अन्य पशुओ एवं मनुष्यों को काटना, मांस पेशियों में अकडन, पैरालिसिस एवं मृत्यु इत्यादि ।

*रेबीज़ बिमारी के इंसानों में क्या लक्षण दिखाई देते है?*

इंसानों में रेबीज़ के शुरुआती लक्षण फ्लू जैसे हो सकते हैं और इनमें कमज़ोरी, सिरदर्द और बुखार शामिल हो सकते हैं। रेबीज़ के गंभीर लक्षण अंतर्गत जी मचलाना, उल्टी आना, चक्कर आना, चिंता व भ्रम की स्थिति में रहना, अति उत्तेजित या अति शांत होकर अवसाद जैसे मानसिक स्थिति निर्मित होती है। परिपक्व अवस्था मनुष्य को धीरे धीरे पानी या भोजन घुटकने में परेशानी होने लगती है एवं पानी से भय होने लगता है, जिसे हाइड्रोफोबिया कहते है। मनुष्यों में यह एक बहुत महत्वपूर्ण लक्षण है क्योकि इन्सान पानी को देखकर डरने लगता है एवं पानी से दूर रहने की कोशिश करता है। बिमारी की अंतिम अवस्था में अत्यधिक लार स्त्राव होना, जीभ का लटकना, बोलने में असमर्थ होना, फोनोफोबिया, कुत्ते जैसी आवाज निकालना, हवा के झोखे से डरना, पुतली का फैल जाना, मांसपेशियों में ऐंठन, पैरालिसिस, सुध-बुध खोना, कोमा में जाना व पक्षाघात के साथ मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।

*पागल कुत्ते या जंगली पशुओ के काटने पर क्या करना चाहये?*

सर्वप्रथम किसी भी अन्य पालतू या जंगली पशुओ द्वारा अपने पालतू पशु या मनुष्यों को काटे या खरोचने पर काटे गये जगह को साबुन एवं बहते पानी के प्रवाह से धोना चाहिए। तत्पश्चात उपलब्ध एंटीसेप्टिक का इस्तेमाल कर 24 घंटे के भीतर क्रमशः नजदीकी पशुचिकित्सालय या जनचिकित्सालय जाकर चिकित्सकीय सलाह अनुसार एंटी रेबीज़ टीका सहित अन्य दवाइयों एवं औषधियों का सेवन करना चाहये। इसप्रकार आज भी रेबीज़ एक ऐसी घातक जानलेवा बिमारी है जिसका केवल टीकाकरण से ही बचाव संभव है।

*सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप*

समाचार पत्रों के अनुसार 2025 में दिल्ली में अब तक 49 रेबीज से मौतें दर्ज की गई हैं जिसमे वर्तमान समय में दिल्ली में रेबीज से एक बच्चे की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त को आदेश दिया कि दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के सभी आवारा कुत्तों को आठ सप्ताह के भीतर पकड़कर शेल्टर में रखा जाए। हालांकि, इस आदेश पर पशु अधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिकों ने तीव्र विरोध जताया। अदालत ने 22 अगस्त को आदेश में संशोधन करते हुए कहा कि केवल आक्रामक या रेबीज से ग्रस्त कुत्तों को ही शेल्टर में रखा जाए, बाकी को टीकाकरण और नसबंदी के बाद उनके क्षेत्र में वापस छोड़ा जाए।

*चिकित्सा विशेषज्ञों की राय*

विशेषज्ञों का कहना है कि रेबीज पूरी तरह से रोके जाने योग्य बीमारी है, लेकिन देर से इलाज शुरू होने, टीके की कमी, और जागरूकता की कमी के कारण मौतें होती हैं। गंभीर मामलों में केवल टीका पर्याप्त नहीं होता-रेबीज इम्यूनोग्लोबुलिन (RIG) की भी आवश्यकता होती है। इसप्रकार आज भी रेबीज़ एक ऐसी घातक जानलेवा बिमारी है जिसका केवल टीकाकरण से ही बचाव संभव है।

 अधिक जानकारी के लिए आप डॉ मिश्रा से 9131564254 पर या अपने नजदीकी जनस्वास्थ्य केंद्र या पशुचिकित्सा संस्था में सम्पर्क कर सकते है।

✍️ सौरभ ताम्रकार, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

नवरात्रि के पावन दिनों में जहां देवी की आराधना और भक्ति का माहौल होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर गरबा और डांडिया नाइट्स का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। अब ये उत्सव केवल सांस्कृतिक या धार्मिक आयोजन नहीं रहे, बल्कि बड़े पैमाने पर “कॉर्पोरेट इवेंट” और “बिजनेस मॉडल” बन चुके हैं।

आयोजनों में करोड़ों का निवेश

प्रदेश के शहरों में इस बार गरबा-डांडिया महोत्सव का कारोबार करोड़ों तक पहुंचने की उम्मीद है। आयोजक कंपनियां और क्लब नवरात्रि के नाम पर विशाल बजट निकालकर स्पॉन्सरशिप, विज्ञापन और टिकट बुकिंग से मोटी कमाई कर रहे हैं।

  • पास/टिकट शुल्क: आम जनता से 500 से लेकर 5,000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं।

  • कॉर्पोरेट पैकेज और वीआईपी टेबल: कंपनियों और धनाढ्य वर्ग को खास ऑफर दिए जा रहे हैं।

  • ऑनलाइन बुकिंग: सोशल मीडिया और बुकिंग ऐप्स के जरिये युवा वर्ग को खासतौर पर आकर्षित किया जा रहा है।

भक्ति से ज्यादा दिखावा

पहले जहां मोहल्लों और मंदिर परिसरों में लोग मुफ्त या न्यूनतम सहयोग राशि पर गरबा खेला करते थे, वहीं अब ऊंचे-ऊंचे टिकट रेट ने गरीब और मध्यम वर्ग को दूर कर दिया है। मंच, डीजे, चमचमाती लाइटिंग और महंगे कलाकार बुलाने के खर्च की भरपाई जनता की जेब से की जा रही है। परिणामस्वरूप धार्मिक आस्था और परंपरा की जगह दिखावा और कारोबारी चमक-दमक हावी हो रही है।

प्रशासन की चुप्पी

सबसे बड़ा सवाल प्रशासन की भूमिका को लेकर है।

  • कई इवेंट आयोजकों ने अब तक न तो जीएसटी विभाग से अनुमति ली है और न ही पर्याप्त टैक्स जमा किया है

  • अफसर शिकायत दर्ज होने का इंतजार कर रहे हैं, जबकि टिकटों की खुली बिक्री और करोड़ों का कारोबार उनकी आंखों के सामने हो रहा है।

  • नाम न छापने की शर्त पर कुछ अधिकारियों ने यह जरूर स्वीकारा कि “विभाग अलर्ट मोड में है” और टैक्स की वसूली की जाएगी, लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।

समाज में उठ रहे सवाल

यह स्थिति अब समाज में चर्चा का बड़ा विषय बन गई है—

  • क्या नवरात्रि और गरबा महोत्सव का मकसद केवल पैसा कमाना रह गया है?

  • क्या देवी दर्शन और गरबा खेलने के लिए भी आम जनता को भारी रकम चुकानी पड़ेगी?

  • धर्म और संस्कृति के नाम पर हो रहे इस व्यापारिक खेल पर आखिर कौन नियंत्रण करेगा?

निष्कर्ष

नवरात्रि उत्सव का मूल भाव “भक्ति, आस्था और संस्कृति” रहा है। लेकिन आज यह करोड़ों का व्यवसाय बनकर गरीब और सामान्य वर्ग से दूरी बना रहा है। सवाल यह है कि क्या प्रशासन और समाज मिलकर इसे सही दिशा देंगे, ताकि नवरात्रि अपनी वास्तविक पहचान—भक्ति और सांस्कृतिक मेलजोल का पर्व—बना रह सके?

दुर्ग। शौर्यपथ।

राजनीति की ऊँचाइयाँ जब किसी नेता को मंत्री पद तक ले जाती हैं, तब अक्सर जीवन में प्रोटोकॉल और व्यस्तताओं का ऐसा जाल बुन जाता है कि पुराने मित्र और रिश्ते धीरे-धीरे पीछे छूट जाते हैं। परंतु यह भी एक सच्चाई है कि जो मित्र सच्चे होते हैं, वे किसी पद या ताज के मोह के कारण नहीं, बल्कि अपनत्व और आत्मीयता की डोर से जुड़े रहते हैं।

इसी सत्य को सहजता से परिभाषित करते हुए स्कूल शिक्षा मंत्री गजेन्द्र यादव आज सुबह दुर्ग शहर में अपने पुराने मित्र मंडली के बीच सामान्य चाय-नाश्ते की चर्चा में शामिल हुए। गंजपारा स्थित एक होटल में बिना किसी औपचारिकता और प्रोटोकॉल के, मंत्री अपने साथियों के साथ पुराने दिनों की यादें ताजा करते नज़र आए।

जहां राजनीति और सरकारी दायित्वों का बोझ हर पल मंत्री के कंधों पर होता है, वहीं यह दृश्य शहरवासियों के लिए चर्चा का विषय बन गया कि इतना बड़ा पद पाने के बावजूद भी मंत्री यादव अपने आत्मीय रिश्तों को जीवित रखना नहीं भूले। यह इस बात का प्रतीक है कि पद भले ही अस्थायी हो, मगर मित्रता जीवन की अमूल्य धरोहर है जो हर परिस्थिति में साथ रहती है।

राजनीति और जिम्मेदारियों की कठोर राह में जब कोई नेता अपने पुराने दिनों की स्मृतियों और दोस्तों के संग बिताए पलों को सहेजकर आगे बढ़ता है, तब यह संदेश और गहरा हो जाता है कि –

? “मंत्री है तो क्या हुआ, इंसानियत और मित्रता ही असली पहचान है।”

दुर्ग कांग्रेस: नए चेहरों से ही मिलेगी मजबूती

आज की राजनीति में कांग्रेस को अपने संगठन में बड़ा बदलाव लाने की सख्त जरूरत है। दशकों से चली आ रही परिवारवाद की राजनीति ने पार्टी को कमजोर किया है, जिससे कई समर्पित कार्यकर्ता अपनी पूरी जिंदगी पार्टी के लिए काम करते रहे, लेकिन उन्हें कभी शीर्ष नेतृत्व में जगह नहीं मिली। अगर कांग्रेस इस परिवारवाद से हटकर नए और अनुभवी चेहरों को मौका देती है, तो यकीनन वह मजबूत होगी।

अगर हम बात दुर्ग कांग्रेस की करें, तो मौजूदा समय में यह संगठन काफी कमजोर दिखाई देता है। इसकी निष्क्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुर्ग जिला मुख्यालय में होने वाले हर विरोध प्रदर्शन या आंदोलन की कमान अक्सर दुर्ग ग्रामीण कांग्रेस अध्यक्ष के हाथ में होती है, और बाकी सभी बड़े नेता उनके पीछे-पीछे चलते नजर आते हैं। चाहे वो पूर्व सांसद प्रत्याशी राजेश साहू हों, पूर्व महापौर आर.एन. वर्मा और धीरज बाकलीवाल हों, या पूर्व विधायक अरुण वोरा, सभी आज एक ही अगुवाई में आंदोलन करते दिखते हैं। मंच पर अपनी वरिष्ठता का हवाला देकर ये नेता अपनी जगह तो बना लेते हैं, लेकिन संगठन में इनकी सक्रिय भागीदारी कहीं नजर नहीं आती।

क्या सिर्फ मंच की राजनीति से काम चलेगा?

मंच पर पहुंचने की इस राजनीति के भरोसे अगर दुर्ग कांग्रेस के नेता बैठे रहे, तो वे आम जनता के बीच अपनी मजबूत पहचान कभी नहीं बना पाएंगे। जबकि, आज की राजनीति में जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की जरूरत है। आज दुर्ग में भाजपा के पास गजेंद्र यादव जैसे कैबिनेट मंत्री, ललित चंद्राकर जैसे दर्जा प्राप्त मंत्री और सरोज पांडे जैसी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। भाजपा में नए कार्यकर्ताओं को भी यह उम्मीद रहती है कि संगठन उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे सकता है।

वहीं, कांग्रेस में कार्यकर्ता आपस में यही चर्चा करते रहते हैं कि आखिर कब तक वे सिर्फ झंडे उठाएंगे और सड़कों पर लड़ते रहेंगे। हाल ही में हुए 'वोट चोर गद्दी छोड़' आंदोलन में कई समर्पित कार्यकर्ताओं को मंच पर जगह नहीं मिली, और पूर्व महापौर आर.एन. वर्मा और धीरज बाकलीवाल जैसे अनुभवी नेता भी दरकिनार नजर आए। दूसरी तरफ परिवार वाद के मंचाधीन वर्चस्व को  प्रमुख स्थान पर देखकर एक बार फिर कार्यकर्ताओं के बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि क्या उनका इस्तेमाल सिर्फ झंडे और डंडे के लिए ही होता रहेगा?

भविष्य की राह और कार्यकर्ताओं का विश्वास

वर्तमान और पिछली राजनीति में काफी अंतर आ गया है। कांग्रेस संगठन को यह बदलाव स्वीकार करना होगा। दुर्ग में राजेंद्र साहू, धीरज बाकलीवाल, क्षितिज चंद्राकर, जयंत देशमुख, दीपक दुबे, विजेंद्र पटेल, अभिषेक बोरकर, और अयूब खान जैसे कई युवा और अनुभवी नेताओ की लंबी फौज हैं, जिन्हें जिले की जिम्मेदारी दी जा सकती है। ये नेता हर क्षेत्र में आम जनता के बीच अपनी एक अलग छवि बनाए हुए हैं और सभी को साथ लेकर बखूबी काम कर सकते हैं।

राजनीति की यह मांग अब बढ़ती जा रही है कि सालों से जमे पुराने चेहरों की जगह नए चेहरों को सामने लाया जाए। एक ही चेहरे से आम जनता भी ऊब चुकी है। नए और ऊर्जावान नेता ही राजनीति में आम जनता के बीच पकड़ को मजबूत करते हैं। अगर कांग्रेस में कार्यकर्ताओं की अनदेखी होती रही, तो कोई बड़ी बात नहीं है कि आने वाले समय में दुर्ग कांग्रेस मुट्ठी भर लोगों तक सिमट कर रह जाएगी और दुर्ग में भाजपा का वर्चस्व और मजबूत होगा। कांग्रेस को यह समझना होगा कि जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता ही पार्टी की असली ताकत हैं। अगर उन्हें सही सम्मान और जिम्मेदारी नहीं मिलेगी, तो पार्टी कमजोर होगी और जनता का विश्वास भी खो देगी। दुर्ग कांग्रेस को अब अपनी इस पुरानी राजनीति को छोड़कर भविष्य की ओर कदम बढ़ाना होगा। तभी वह विपक्ष की भूमिका को मजबूती से निभा पाएगी और आम जनता के बीच अपनी पहचान बना पाएगी।

क्षेत्र में चल रही राजनीतिक चर्चाओं केआधर पर

   शौर्यपथ लेख / भारत में स्वच्छता की चर्चा जब भी होती है, तो केवल कचरा या गंदगी की सफाई ही नहीं बल्कि शौचालयों की उपलब्धता और उनका नियमित उपयोग भी सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आती है। लंबे समय तक खुले में शौच की समस्या देश की छवि और स्वास्थ्य दोनों के लिए बाधा बनी रही। वर्ष 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन का आह्वान किया, तब इस समस्या को दूर करने की दिशा में व्यापक प्रयास शुरू हुए। घर-घर शौचालय बनने लगे, शहरों और कस्बों में सार्वजनिक और सामुदायिक शौचालयों का निर्माण हुआ और धीरे-धीरे समाज में यह संदेश घर करने लगा कि स्वच्छता केवल सरकार का कार्य नहीं बल्कि हर नागरिक की जिम्मेदारी है।
इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए क्लीन टॉयलेट अभियान की शुरुआत हुई, जिसकी थीम है – “स्वच्छ शौचालय हमारी जिम्मेदारी।” इस अभियान का मकसद केवल शौचालय बनाना नहीं, बल्कि उन्हें स्वच्छ, सुरक्षित और उपयोगी बनाए रखना है। क्योंकि यह बार-बार देखा गया कि शौचालय बन जाने के बाद भी उनका रखरखाव न होने से लोग उन्हें छोड़कर फिर खुले में शौच करने लगते थे। इसलिए इस अभियान ने ध्यान केंद्रित किया नागरिकों की सक्रिय भागीदारी, सफाई मित्रों और स्थानीय निकायों के सहयोग तथा सामुदायिक जिम्मेदारी पर।
इंदौर: स्वच्छता की राजधानी और नई पहल
देश का सबसे स्वच्छ शहर कहलाने वाला इंदौर क्लीन टॉयलेट अभियान का भी अग्रणी उदाहरण है। विश्व शौचालय दिवस के अवसर पर नगर निगम ने “शौचालय सुपर स्पॉट कैंपेन” आयोजित किया। इस अनोखे अभियान में नागरिकों को प्रोत्साहित किया गया कि वे सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करें और वहां पर अपनी उपस्थिति को तस्वीर के माध्यम से दर्ज करें। नतीजा यह हुआ कि शहर के सात सौ से अधिक शौचालयों पर एक लाख से ज्यादा लोगों ने जाकर सेल्फी ली और उसे ऑनलाइन अपलोड किया। यह केवल आंकड़ों की बात नहीं है बल्कि यह दर्शाता है कि इंदौर के नागरिक स्वच्छता को गर्व और जिम्मेदारी दोनों मानते हैं।
खास बात यह रही कि अभियान की शुरुआत के केवल तीन घंटे के भीतर ही तीस हजार से अधिक तस्वीरें अपलोड हो चुकी थीं। सुबह पांच बजे से आठ बजे तक का यह दृश्य बताता है कि नागरिक कितनी तत्परता और जागरूकता के साथ इसमें भाग ले रहे थे। इंदौर का यह प्रयोग न केवल पूरे देश के लिए प्रेरणा है बल्कि यह संदेश भी देता है कि यदि जनता प्रशासन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हो, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं होता।
बिलासपुर: बबलू महतो और परिवार की मिसाल
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के अशोक नगर इलाके की कहानी बताती है कि बदलाव के लिए बड़े साधनों की नहीं बल्कि छोटे प्रयासों की आवश्यकता होती है। नगर निगम ने बबलू महतो को एक सार्वजनिक सुविधा केंद्र की देखभाल की जिम्मेदारी दी। यह स्थान पहले असामाजिक तत्वों का अड्डा माना जाता था। लोग वहां जाने से डरते थे और शौचालय लगभग बेकार पड़ा था।
लेकिन बबलू महतो ने अपने परिवार के सहयोग से इस स्थान का कायाकल्प कर दिया। उन्होंने न केवल शौचालय और स्नानघर की नियमित सफाई सुनिश्चित की बल्कि आसपास का वातावरण भी पूरी तरह बदल डाला। धीरे-धीरे यह स्थान लोगों के लिए सुरक्षित और स्वच्छ सार्वजनिक स्थल बन गया। उनकी पत्नी अनीता और पूरा परिवार इस जिम्मेदारी को निभाने में बराबर का योगदान देता है। आज यह सुविधा केंद्र इलाके के लोगों के लिए वरदान बन चुका है। यह उदाहरण हमें यह सिखाता है कि यदि जिम्मेदारी का भाव हो तो कोई भी व्यक्ति समाज में बड़ा बदलाव ला सकता है।
कोरबा: प्रभास शाही का योगदान
कोरबा जिले के प्रभास शाही ने अपनी सतत मेहनत और सेवा से स्वच्छता अभियान को एक नया आयाम दिया। वे पिछले दस वर्षों से शहर के नए बस स्टैंड और अन्य इलाकों में बने तेईस सार्वजनिक शौचालयों की देखभाल कर रहे हैं। उनकी सोच केवल सफाई तक सीमित नहीं रही। उन्होंने इन शौचालयों को आधुनिक सुविधाओं से लैस किया।
महिलाओं और बच्चों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सैनिटरी नैपकिन डिस्पेंसर, इंसीनेरेटर और बेबी फीडिंग रूम जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। यह सब बिना किसी बड़े प्रचार-प्रसार के हुआ, लेकिन इसका असर पूरे शहर पर पड़ा। प्रभास शाही की मेहनत का ही परिणाम है कि कोरबा शहर खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त हुआ और ODF++ का दर्जा प्राप्त कर सका। यह उपलब्धि बताती है कि व्यक्तिगत प्रयास भी सामूहिक सफलता में बदल सकते हैं।
स्वच्छता और गरिमा का संबंध
क्लीन टॉयलेट अभियान केवल सफाई का सवाल नहीं है, यह स्वास्थ्य और गरिमा दोनों से जुड़ा हुआ है। खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए स्वच्छ और सुरक्षित शौचालय का होना उनकी गरिमा और आत्मसम्मान का सवाल है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लंबे समय तक महिलाओं को अंधेरे में खुले में शौच करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे न केवल उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता था बल्कि सुरक्षा की समस्या भी बनी रहती थी।
आज जब सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों का जाल बिछाया गया है, तो जिम्मेदारी यह बनती है कि उनकी स्वच्छता और उपयोगिता बनी रहे। यदि वे गंदे या अनुपयोगी होंगे तो लोग फिर से पुराने तरीकों की ओर लौट सकते हैं। इसलिए क्लीन टॉयलेट अभियान का संदेश यह है कि निर्माण के साथ-साथ रखरखाव भी उतना ही जरूरी है।
चुनौतियाँ और समाधान
हालांकि इस अभियान की सफलता के बावजूद कई चुनौतियाँ सामने हैं। कई शहरों में शौचालय तो बन जाते हैं लेकिन उनका नियमित रखरखाव नहीं हो पाता। पानी और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ न होने से उनका उपयोग कठिन हो जाता है। कई बार नागरिक भी लापरवाही बरतते हैं और शौचालयों को गंदा छोड़ देते हैं।
इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब नागरिक, प्रशासन और सफाई मित्र मिलकर काम करें। एक ओर स्थानीय निकाय को यह सुनिश्चित करना होगा कि शौचालयों की सफाई और मरम्मत नियमित रूप से हो, वहीं नागरिकों को भी इन्हें अपनी संपत्ति मानकर संभालना होगा। जागरूकता अभियानों, जन सहभागिता और तकनीक के उपयोग से इस दिशा में और सुधार किया जा सकता है।
जनभागीदारी का महत्व
क्लीन टॉयलेट अभियान की सबसे बड़ी ताकत है जनभागीदारी। जब लोग इसमें जुड़ते हैं तो यह केवल सरकारी योजना नहीं बल्कि एक आंदोलन बन जाता है। इंदौर, बिलासपुर और कोरबा जैसे उदाहरण यही साबित करते हैं। इंदौर में नागरिकों का उत्साह, बबलू महतो और प्रभास शाही जैसे व्यक्तियों की निष्ठा और प्रशासन का सहयोग मिलकर इसे सफल बनाता है। यही कारण है कि यह अभियान अब पूरे देश में तेजी से फैल रहा है।
भविष्य की दिशा
स्वच्छता केवल आज की जरूरत नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों की सेहत और सुरक्षा से भी जुड़ी हुई है। स्मार्ट सिटी, आत्मनिर्भर भारत और सतत विकास जैसे लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जरूरी है कि हम स्वच्छता को अपनी संस्कृति और आदत का हिस्सा बनाएं। क्लीन टॉयलेट अभियान हमें यही सिखाता है कि यदि हर नागरिक इसे अपना कर्तव्य माने तो शहर ही नहीं पूरा देश साफ और स्वस्थ हो सकता है।
यह अभियान धीरे-धीरे लोगों की सोच बदल रहा है। अब लोग शौचालयों को केवल जरूरत नहीं बल्कि अपनी गरिमा और सम्मान से जुड़ा मानने लगे हैं। यह बदलाव ही इस अभियान की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
क्लीन टॉयलेट अभियान हमें यह संदेश देता है कि स्वच्छ शौचालय केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है। जब लोग इसे अपनी आदत बना लेंगे तो न केवल बीमारियाँ कम होंगी बल्कि समाज भी अधिक सुरक्षित और सम्मानजनक बनेगा। इंदौर की जनता, बिलासपुर के बबलू महतो और कोरबा के प्रभास शाही जैसे उदाहरण हमें प्रेरित करते हैं कि अगर इच्छा और प्रतिबद्धता हो तो बदलाव लाना कठिन नहीं।
आज जरूरत इस बात की है कि हम सब मिलकर इस अभियान को आगे बढ़ाएँ और यह साबित करें कि स्वच्छ भारत का सपना केवल एक योजना नहीं बल्कि हमारी साझा जिम्मेदारी और राष्ट्रीय संकल्प है।
लेख : पत्र सूचना कार्यालय की ओर से जारी

साभार  - श्री शिवराज सिंह चौहान
शौर्यपथ लेख / भारतीय राजनीति में नरेन्‍द्र मोदी के उदय को विशेषाधिकार के पारंपरिक लेंस से नहीं समझा जा सकता। राजनीतिक वंशों में पले-बढ़े अनेक नेताओं के विपरीत, मोदी और उनकी नेतृत्व शैली ज़मीन से उभरी है, जिसने उनके संघर्ष, वर्षों से ज़मीनी स्तर पर किए गए कार्यों और सरकार के विभिन्न स्तरों पर प्राप्‍त व्‍यवहारिक अनुभवों से आकार लिया है। उनका करियर मात्र एक व्यक्ति के उत्थान को ही प्रदर्शित नहीं करता, बल्कि यह भारत में अभिजात वर्ग द्वारा संचालित राजनीति की नींव के लिए एक चुनौती भी है।
  वडनगर के एक साधारण परिवार में जन्मे मोदी का बचपन ज़िम्मेदारी और सादगी से भरपूर रहा। बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए चैरिटी स्टॉल लगाने से लेकर स्कूली छात्र के रूप में जातिगत भेदभाव पर आधारित नाटक लिखने तक, उन्होंने अल्‍पायु में ही संगठनात्मक कौशल और सामाजिक सरोकार का अद्भुत मिश्रण प्रदर्शित किया। उन्होंने वंचित सहपाठियों के लिए पुरानी किताबें और वर्दियाँ इकट्ठा करने के अभियान भी चलाए, जो इस बात का प्रारंभिक संकेत था कि वह नेतृत्व को किसी विशेषाधिकार के रूप में नहीं, बल्कि सेवा के रूप में देखते हैं। इन छोटे-छोटे प्रयासों ने उनके द्वारा सार्वजनिक जीवन में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण का पूर्वाभास करा दिया।
   उनकी मूलभूत प्रवृत्तियाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में और भी प्रखर हुईं, जहाँ साधारण कार्यकर्ताओं को ग्रामीणों से घुलने-मिलने, उनके जैसा जीवन व्‍यतीत करने और अपने आचरण के जरिए उनका विश्वास अर्जित करने का प्रशिक्षण दिया जाता था। एक युवा प्रचारक के तौर पर मोदी ने बिल्‍कुल वैसा ही किया। अक्सर बस या स्कूटर से गुजरात भर में यात्रा करते हुए, और भोजन व आश्रय के लिए ग्रामीणों पर निर्भर रहते हुए, उन्होंने साझा कठिनाइयों और संघर्षों के माध्यम से सभी वर्गों का विश्वास अर्जित किया। इस अनुशासन ने उन्हें उन लोगों के रोज़मर्रा के सरोकारों से जुड़े रहने में मदद की, जिनकी वे सेवा करना चाहते थे, और इसी ने उन्हें संकटकाल में संगठित, बड़े पैमाने पर कदम उठाने की आवश्‍यकता पड़ने पर प्रभावी ढंग से नेतृत्व करने के लिए भी तैयार किया।
  ऐसा ही एक संकट 1979 में मच्छू बांध के टूटने से आया था, जिसमें हज़ारों लोग मारे गए थे। 29 वर्षीय मोदी ने तुरंत स्वयंसेवकों को पालियों में संगठित किया, राहत सामग्री का प्रबंध किया, शवों को निकाला और परिवारों को सांत्वना दी। कुछ साल बाद, गुजरात में सूखे के दौरान, उन्होंने सुखड़ी अभियान का नेतृत्व किया, जो पूरे राज्य में फैल गया और लगभग 25 करोड़ रुपये मूल्‍य का भोजन वितरित किया गया। दोनों ही आपदाओं में, उन्होंने बिल्‍कुल आरंभ से ही बड़े पैमाने पर राहत प्रयास शुरू किए, जिससे उनके उद्देश्य की स्पष्टता, उनके सैन्य-शैली के संगठन और उनका इस आग्रह का परिचय मिला कि नेतृत्व का अर्थ केवल प्रतीकात्मकता नहीं, बल्कि सेवा है।
  इन शुरुआती घटनाओं ने जहाँ एक ओर लोगों को संगठित करने की उनकी क्षमता को परखा, वहीं आपातकाल ने दमन के दौर में उनके साहस की परीक्षा ली। मात्र 25 वर्ष की आयु में, एक सिख के वेश में, उन्होंने पुलिस निगरानी से बचने की कोशिश कर रहे कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच संवाद कायम रखा। इस ज़मीनी नेटवर्क ने क्रूर शासन के विरुद्ध प्रतिरोध को जीवित रखा, जिससे उन्हें एक कुशल संगठनकर्ता के रूप में ख्याति मिली।
  इन्‍हीं कौशलों का उपयोग जल्द ही चुनावी राजनीति में भी किया गया। भाजपा - गुजरात के संगठन मंत्री के रूप में, उन्होंने पार्टी का विस्तार नए समुदायों तक किया, जिनमें राजनीतिक विमर्श में हाशिए पर पड़े लोग भी शामिल थे। उन्होंने विविध पृष्ठभूमियों के नेताओं को तैयार किया, ज़मीनी स्तर पर समर्थन जुटाया और पूरे गुजरात में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा जैसे बड़े आयोजनों की योजना बनाने में मदद की। बाद में, विभिन्न राज्यों के प्रभारी के रूप में उन्होंने बूथ स्तर तक मज़बूत पार्टी तंत्रों का निर्माण किया।
  साल 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होने पर उन्होंने ये सबक शासन में लागू किए। उदाहरण के लिए, पदभार ग्रहण करने के चंद घंटे बाद ही उन्होंने साबरमती में नर्मदा का जल लाने के विषय में एक बैठक बुलाकर इस बात का संकेत दिया कि निर्णायक कार्रवाई उनके प्रशासन को परिभाषित करेगी। उनका दृष्टिकोण शासन को एक जन आंदोलन बनाना था, जहाँ प्रवेशोत्सव ने स्कूलों में नामांकन को प्रोत्साहित किया, कन्या केलवणी ने बालिकाओं की शिक्षा का समर्थन किया, गरीब कल्याण मेलों ने कल्याण को नागरिकों तक पहुँचाया, और कृषि रथ ने कृषि सहायता को किसानों के खेतों तक पहुँचाया। नौकरशाहों को दफ्तरों से निकालकर कस्बों और गाँवों तक भेजा गया। उनका मानना है कि शासन लोगों तक वहाँ पहुँचे जहाँ वे रहते हैं, न कि केवल मीटिंग कक्षों तक सीमित रहे।
  उनके प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद गुजरात में किए गए प्रयोग राष्ट्रीय आदर्श बन गए। स्वच्छता अभियानों के उनके अनुभव ने स्वच्छ भारत मिशन का रूप लिया, जहाँ उन्होंने प्रतीकात्मकता को सामूहिक कार्रवाई में बदलने के लिए स्वयं झाड़ू उठाई। डिजिटल इंडिया, जन-धन योजना और अन्य पहल शीर्ष से शुरू किए गए कार्यक्रम नहीं थे, बल्कि जमीनी स्तर पर बिताए उनके वर्षों से प्राप्त सीखों पर आधारित जन-आंदोलन थे। इन्‍होंने जन-भागीदारी के उनके दर्शन को मूर्त रूप दिया, जहाँ शासन तभी कारगर होता है, जब नागरिक निष्क्रिय प्राप्तकर्ता न बने रहकर, स्‍वयं भागीदार बनें। मोदी जैसे नेता और जनता के बीच दशकों से विकसित इसी विश्वास ने आज के भारत में नीति को साझेदारी में बदल दिया है।
  दशकों से, मोदी बैठकों में होने वाली बहसों से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर जीवंत संपर्क की बदौलत लोगों की ज़रूरतों को समझने और उन्हें पूरा करने के तरीकों को जानने की दुर्लभ सहज प्रवृत्ति प्रदर्शित करते आए हैं। यह प्रवृत्ति कठोर प्रशासनिक अनुभव के साथ मिलकर उनकी राजनीति को परिभाषित करती है।
  मूलभूत रूप से, उनके जीवन और नेतृत्व ने भारतीय राजनीति के केवल अभिजात वर्ग से संबद्ध होने की धारणा को नए सिरे से परिभाषित किया है। वह योग्यता और परिश्रम का प्रतीक बन चुके हैं तथा वह शासन को जनसाधारण के और करीब ले आए हैं। उनकी राजनीतिक शक्ति सत्ता को जनता से जोड़ने में निहित है। ऐसा करके, उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नया रूप दिया है, जो आम नागरिक के संघर्षों और भावनाओं पर आधारित है।

   शौर्यपथ सम्पादकीय /  भारतीय राजनीति में नेताओं द्वारा अमर्यादित, अपमानजनक और विवादास्पद भाषा का प्रयोग एक गंभीर समस्या के रूप में उभरता जा रहा है। यह प्रवृत्ति अब लगभग सभी प्रमुख दलों के नेताओं में दिखाई देने लगी है। इसके परिणामस्वरूप न केवल लोकतंत्र की गरिमा प्रभावित हो रही है, बल्कि समाज में वैमनस्य और ध्रुवीकरण भी बढ़ रहा है।

अमर्यादित भाषा: तथ्य और सत्यता

अमर्यादित भाषा या अपमानजनक टिप्पणियां अक्सर विपक्षी दलों, महिलाओं, जातियों, धर्मों या क्षेत्रीय समुदायों को निशाना बनाती हैं। बीते वर्षों में ऐसी घटनाओं की संख्या सैकड़ों में रही है, जिन पर मीडिया और सोशल मीडिया में तीखी आलोचना सामने आती है।

बीजेपी नेताओं द्वारा महिलाओं, विपक्षी नेताओं और समुदायों पर की गई टिप्पणियों की पुष्टि विभिन्न समाचार रिपोर्टों और सोशल मीडिया पोस्ट्स से होती रही है। कैलाश विजयवर्गीय, रमेश बिधुड़ी और अश्विनी चौबे की टिप्पणियां इसके उदाहरण हैं।

कांग्रेस नेताओं की भाषा भी कई बार प्रधानमंत्री, भाजपा नेताओं और महिलाओं को लक्ष्य बनाती रही है। राहुल गांधी की "वोटर अधिकार यात्रा" में पीएम मोदी व उनकी मां को लेकर विवादित टिप्पणी, बाबू जंडेल की धार्मिक टिप्पणी और अजय राय की सेक्सिस्ट टिप्पणी इसका हिस्सा रही हैं।

आम आदमी पार्टी (AAP) के नेताओं द्वारा भी जातिवादी और तीखी भाषा का प्रयोग सामने आया है। गोपाल इटालिया द्वारा "नीच" शब्द का इस्तेमाल, अमनतुल्लाह खान की टिप्पणियां और प्रवक्ताओं द्वारा पत्रकारों को धमकाने जैसी घटनाएं चर्चा में रही हैं।

अन्य दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस (TMC), डीएमके (DMK), समाजवादी पार्टी (SP) आदि के नेताओं की अमर्यादित भाषा भी क्षेत्रीय, धार्मिक और जातीय अपमान या धमकियों के रूप में सामने आती रही है। महुआ मोइत्रा, दयानिधि मारन, शिवाजी कृष्णमूर्ति और संजय राउत इसके उदाहरण हैं।

मीडिया एवं समाज की प्रतिक्रिया

इन घटनाओं पर मीडिया ने लगातार आलोचना की है, वहीं सोशल मीडिया पर तीखी चर्चाएं होती रही हैं। विपक्षी दलों द्वारा कार्रवाई की मांग बार-बार उठती है, लेकिन राजनीतिक संस्कृति में इस प्रवृत्ति का सामान्यीकरण हो चुका है। यही कारण है कि ठोस कार्रवाई बहुत कम दिखाई देती है।

कानूनी और संस्थागत दृष्टिकोण

नीतिगत स्तर पर भारत सरकार और चुनाव आयोग ने चुनाव अभियान के दौरान अभद्र भाषा पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश बनाए हैं। सुप्रीम कोर्ट और अन्य संस्थाओं ने भी समय-समय पर संज्ञान लिया है, किंतु क्रियान्वयन और कानून के असर में अपेक्षित सुधार नहीं दिख रहा है।

आगे की राह

राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और नेताओं को समाज की भावना, संविधान और लोकतांत्रिक गरिमा का सम्मान रखते हुए बयान देने चाहिए। आलोचना और विरोध लोकतंत्र का हिस्सा हैं, किंतु उन्हें मर्यादित भाषा में व्यक्त करना ही उचित है। यही दृष्टिकोण देशहित और सामाजिक सौहार्द बनाए रख सकता है।

इस प्रकार, भारतीय राजनीति में अमर्यादित भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है और यह लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा है। सभी दलों के नेताओं को व्यक्तिगत मान-मर्यादा और संविधान की सीमाओं का सम्मान करना होगा, ताकि राजनीति की गरिमा संरक्षित रह सके।

सम्पादकीय लेख / शरद पंसारी

रायपुर। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की दस दिवसीय जापान और दक्षिण कोरिया यात्रा छत्तीसगढ़ के लिए ऐतिहासिक साबित हुई। इस उच्चस्तरीय दौरे ने प्रदेश को अंतरराष्ट्रीय निवेश, तकनीकी हस्तांतरण, रोजगार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के क्षेत्र में नए अवसर दिए हैं।


रणनीतिक पृष्ठभूमि और उद्देश्य

यह यात्रा भारतीय व्यापार संवर्धन संगठन (ITPO) के आमंत्रण पर आयोजित हुई। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल ने छत्तीसगढ़ की नई औद्योगिक नीति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया। मुख्य उद्देश्य था –

  • छत्तीसगढ़ को वैश्विक निवेश केंद्र बनाना

  • नई तकनीकों व प्रबंधन ज्ञान का हस्तांतरण करना

  • औद्योगिक विकास को सांस्कृतिक और पर्यटन विस्तार से जोड़ना


ओसाका वर्ल्ड एक्सपो में आकर्षण का केंद्र बना छत्तीसगढ़

ओसाका वर्ल्ड एक्सपो में लगाए गए छत्तीसगढ़ पवेलियन ने विदेशी निवेशकों, नीति निर्माताओं और कंपनियों का ध्यान खींचा।

  • बौद्ध धरोहर, लोककला, टेक्सटाइल और फूड प्रोसेसिंग को खास तौर पर प्रदर्शित किया गया।

  • विदेशी कंपनियों ने इन क्षेत्रों में साझेदारी और निवेश में रुचि दिखाई।


जापान और कोरिया में हुए करार

  • जापान की SARTHAJ FOODS, Biocedes और Biyani Group ने छत्तीसगढ़ में संयंत्र लगाने में रुचि दिखाई।

  • दक्षिण कोरिया की Modern Tech Corp और UNECORAIL ने मेट्रो रेल, स्मार्ट सिटी और रेलवे उपकरण निर्माण में निवेश पर सहमति दी।

  • मुख्यमंत्री ने कोरिया इंटरनेशनल ट्रेड एसोसिएशन (KITA) और प्रमुख औद्योगिक समूहों से प्रत्यक्ष संवाद कर कई समझौते किए।


निवेशकों के लिए भरोसेमंद वातावरण

छत्तीसगढ़ सरकार ने निवेशकों को आश्वस्त किया कि—

  • सिंगल विंडो सिस्टम से त्वरित क्लीयरेंस मिलेगी।

  • फास्टर ग्राउंडिंग नीति से परियोजनाओं की तुरंत शुरुआत होगी।

  • 5G, ई-व्हीकल, नवीकरणीय ऊर्जा और फूड प्रोसेसिंग जैसे क्षेत्रों में सब्सिडी और कर छूट की पेशकश की गई।


रोजगार और कौशल विकास की नई दिशा

इस यात्रा के परिणामस्वरूप 6 बड़े निवेश प्रस्ताव आए हैं, जिनसे हजारों युवाओं को रोजगार मिलेगा।

  • जापान और कोरिया के साथ नॉलेज शेयरिंग कोलैबोरेशन की योजना बनी है।

  • स्टार्टअप, स्किल डेवलपमेंट और रिसर्च हब की स्थापना के लिए संस्थानों को आमंत्रित किया गया।


सांस्कृतिक और पर्यटन में नया अध्याय

  • ओसाका एक्सपो में छत्तीसगढ़ की लोककला और बौद्ध धरोहर ने जापानी और कोरियाई निवेशकों का ध्यान आकर्षित किया।

  • सरकार ने बौद्ध पर्यटन सर्किट को जापान, कोरिया और अन्य एशियाई देशों से जोड़ने का रोडमैप प्रस्तुत किया।


भविष्य की नींव

मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की यह यात्रा केवल निवेश तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने छत्तीसगढ़ को अगले दशक के लिए विकास, तकनीकी नवाचार और सांस्कृतिक गौरव की मजबूत नींव दी है।
पारदर्शी प्रशासन, तेज़ी से परियोजनाओं की ग्राउंडिंग और जनता की भागीदारी इस यात्रा की सबसे बड़ी पूंजी साबित होगी।

दुर्ग। शौर्यपथ / राजनितिक
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस संगठन की स्थिति पर यदि विशेष रूप से दुर्ग जिले की बात की जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि संगठन लंबे समय से परिवारवाद, गुटबाज़ी और निष्क्रियता की राजनीति में उलझा हुआ है। यही कारण है कि कांग्रेस कार्यकर्ता, जो पार्टी की रीढ़ माने जाते हैं, लगातार उपेक्षा और निराशा का सामना कर रहे हैं।


परिवारवाद और संगठन पर कब्ज़ा

दुर्ग कांग्रेस की राजनीति बीते वर्षों से कुछ चुनिंदा परिवारों और नेताओं तक सीमित रही है।

  • पार्टी के भीतर ब्लॉक और जिला स्तर पर वही पुराने चेहरे बार-बार आगे लाए जाते हैं।

  • इससे न केवल संगठन में ठहराव आया है बल्कि नए और समर्पित कार्यकर्ताओं के लिए अवसर भी बंद हो गए हैं।

  • हालिया ब्लॉक अध्यक्ष चुनाव की मीटिंग में भी यही परिदृश्य सामने आया, जब बिना पूर्व जानकारी दिए अचानक बैठक में पुराने अध्यक्ष की दावेदारी का नाम उछाल दिया गया।

कार्यकर्ताओं के अनुसार यह प्रक्रिया उनके लिए “आघात” जैसी रही। उनका मानना है कि बिना उद्देश्य बताए, अचानक नामांकन की चर्चा संगठन की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ है।


निष्क्रिय नेतृत्व और कमजोर विपक्ष

दुर्ग कांग्रेस की कमजोरी का दूसरा बड़ा कारण है – नेतृत्व की निष्क्रियता।

  • जिला अध्यक्ष लंबे समय से निष्क्रिय भूमिका में नजर आते हैं।

  • सत्ता में रहने के दौरान ब्लॉक अध्यक्ष सत्ता का लाभ उठाते रहे, जबकि विपक्ष की भूमिका में आने के बाद भी कोई प्रभावी आंदोलन खड़ा नहीं किया गया।

  • केवल दुर्ग ग्रामीण कांग्रेस अध्यक्ष राकेश ठाकुर ही लगातार जिला मुख्यालय पर आंदोलनों की जिम्मेदारी उठाते रहे, लेकिन शहर कांग्रेस में इसका असर दिखाई नहीं दिया।


भविष्य की चुनौती : अरुण वोरा की दावेदारी

राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर पूर्व विधायक अरुण वोरा को टिकट मिल सकता है।

  • कार्यकर्ताओं का मानना है कि अरुण वोरा की पिछले वर्षों की निष्क्रियता और कार्यकर्ताओं के साथ भेदभावपूर्ण रवैया कांग्रेस की स्थिति को और कमजोर कर देगा।

  • यद्यपि उनकी पहुंच केंद्रीय संगठन तक है, लेकिन आम कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव कमजोर पड़ चुका है।

  • यदि आठवीं बार भी टिकट उन्हें मिलता है, तो यह कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है और भाजपा को दुर्ग में एक मजबूत संजीवनी मिल जाएगी।

? यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अब आम जनता भी लगातार एक ही प्रत्याशी और उसी परिवार के नाम को सुन-सुनकर ऊब चुकी है। पिछले 35–40 वर्षों से दुर्ग की जनता को लगभग एक ही चेहरे का सामना करना पड़ा है। जनता का कहना है कि कांग्रेस यदि केवल परिवारवादी राजनीति पर टिकेगी तो उससे किसी बड़े बदलाव की उम्मीद करना व्यर्थ है। यही कारण है कि आज कांग्रेस से आम जनता की अपेक्षाएँ लगभग खत्म हो चुकी हैं।


कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा, जनता भी निराश

कांग्रेस कार्यकर्ता आज संगठन के भीतर परिवारवाद और मनमानी से सबसे अधिक आहत हैं।

  • ब्लॉक स्तर की बैठकों में कार्यकर्ताओं की अनदेखी,

  • निर्णयों में पारदर्शिता का अभाव,

  • और आंदोलन की कमी ने कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ दिया है।

इसी के समानांतर, आम जनता भी कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व से निराश हो चुकी है। बार-बार वही परिवार और वही प्रत्याशी देखना जनता को अब नीरस और अप्रभावी लग रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो जनता का कांग्रेस से मोहभंग और गहराता जाएगा।


परिवारवाद बनाम संगठनात्मक लोकतंत्र

कांग्रेस का इतिहास लोकतांत्रिक परंपराओं पर आधारित रहा है, लेकिन दुर्ग कांग्रेस में परिवारवाद और कब्ज़े की राजनीति ने संगठन को खोखला कर दिया है।

  • प्रदेश और केंद्रीय संगठन अब भी परिवारवाद को नजरअंदाज कर रहे हैं।

  • यह प्रवृत्ति केवल दुर्ग ही नहीं, बल्कि अन्य जिलों में भी कांग्रेस की पकड़ कमजोर कर रही है।

  • जहां परिवारवाद मजबूत रहेगा, वहां कांग्रेस का जनाधार और समर्पित कार्यकर्ता दोनों खो जाएंगे।


निष्कर्ष : बदलाव ही विकल्प

राजनीति का स्वरूप लगातार बदलता है। विपक्ष के रूप में कांग्रेस के पास जनता की आवाज़ उठाने का बड़ा अवसर था, लेकिन दुर्ग में पार्टी इस भूमिका को निभाने में नाकाम रही है।
यदि संगठन में समय रहते बदलाव नहीं हुआ, तो कांग्रेस को न केवल दुर्ग शहर बल्कि पूरे जिले में अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल होगा।

दुर्ग कांग्रेस के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है – परिवारवाद से ऊपर उठकर सक्रिय और पारदर्शी नेतृत्व खड़ा करना। अन्यथा आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का पतन अवश्यंभावी है।


अब यह लेख कांग्रेस कार्यकर्ताओं और आम जनता – दोनों की भावनाओं को समाहित करता है।

संपादकीय लेख / शौर्यपथ /

दुर्ग की राजनीति में हाल के घटनाक्रम यह साफ संकेत देते हैं कि कांग्रेस यदि आत्ममंथन नहीं करती तो भविष्य और संकटपूर्ण हो सकता है। एक ओर विधायक गजेंद्र यादव का तेजी से उभार और कैबिनेट मंत्री के रूप में उनकी सक्रिय भूमिका है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस उसी पुराने परिवारवाद के बोझ तले संघर्ष करती दिख रही है। यही प्रवृत्ति कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है।

लगातार हार और कार्यकर्ताओं का मोहभंग
पिछले विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए चेतावनी की घंटी थे। लगातार सात चुनाव में मैदान में उतरे पुराने चेहरे पर जनता ने विश्वास खो दिया। इस बार तो हार का अंतर चौंकाने वाला रहा — लगभग 50 हज़ार वोटों से कांग्रेस प्रत्याशी अरुण गोरा की पराजय।
ऐसे नतीजे यह साबित करते हैं कि जनता अब परिवारवाद से ऊब चुकी है। वहीं कार्यकर्ताओं में भी लंबे समय से उत्साह की कमी साफ झलकने लगी है।

गजेंद्र यादव : सत्ता पक्ष में मजबूत चेहरा
दुर्ग से विधायक गजेंद्र यादव का कैबिनेट मंत्री बनना स्थानीय राजनीति की पूरी तस्वीर बदल चुका है। वे लगातार सक्रिय रूप से जनता से जुड़े हैं और शासन प्रशासन में उनकी पकड़ मज़बूत दिखाई देती है।
आज की स्थिति यह है कि दुर्ग की राजनीति में वे सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे हैं। ऐसे में परिवारवाद से बंधी कांग्रेस उनके सामने कहीं टिकती नहीं दिख रही।

संगठन की असली ज़रूरत : नया नेतृत्व, नई सोच
अगर कांग्रेस को दुर्ग में फिर से मजबूत होना है तो सबसे पहले उसे परिवारवाद की बेड़ियों से मुक्त होना होगा। ज़रूरत ऐसे नेतृत्व की है जो—

कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चल सके,

संगठन को बूथ स्तर तक मज़बूत कर सके,

और जनता के बीच यह संदेश दे सके कि कांग्रेस अब “किसी परिवार की पार्टी” नहीं, बल्कि “जनता और कार्यकर्ताओं की पार्टी” है।

केंद्र और प्रदेश के लिए चुनौतीपूर्ण सवाल
अब सवाल कांग्रेस के केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व पर है। क्या वे फिर से कमजोर होते संगठन को उसी परिवार के हवाले करेंगे जिसने चुनाव दर चुनाव पार्टी को हार की ओर धकेला है?
या फिर वे जमीनी नेतृत्व को आगे बढ़ाने का साहस दिखाएंगे? यही फैसला आने वाले समय में कांग्रेस का भविष्य तय करेगा।

निष्कर्ष : आत्ममंथन की घड़ी
आज जब गजेंद्र यादव सत्ता पक्ष में मज़बूती से खड़े हैं, तब कांग्रेस संगठन दुर्ग में लगभग निष्क्रिय दिखाई देता है। यह कांग्रेस के लिए आत्ममंथन की सबसे गहरी घड़ी है।
यदि पार्टी परिवारवाद से बाहर निकलकर नई सोच और नया नेतृत्व देती है तो संगठन फिर से कार्यकर्ताओं और जनता का विश्वास जीत सकता है। अन्यथा, कांग्रेस दुर्ग की राजनीति में मात्र इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएगी।

?️ (यह लेख राजनीती से जुड़े व्यक्तियों से चर्चा के आधार पर एवं वर्तमान में कांग्रेस की दुर्ग में राजनैतिक स्थिति व कार्यकर्ताओ की मंशा पर आधारित है , समाचार पत्र की नीति से इनका संबन्ध अनिवार्य नहीं है।)

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