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✍️ सौरभ ताम्रकार, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
नवरात्रि के पावन दिनों में जहां देवी की आराधना और भक्ति का माहौल होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर गरबा और डांडिया नाइट्स का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। अब ये उत्सव केवल सांस्कृतिक या धार्मिक आयोजन नहीं रहे, बल्कि बड़े पैमाने पर “कॉर्पोरेट इवेंट” और “बिजनेस मॉडल” बन चुके हैं।
प्रदेश के शहरों में इस बार गरबा-डांडिया महोत्सव का कारोबार करोड़ों तक पहुंचने की उम्मीद है। आयोजक कंपनियां और क्लब नवरात्रि के नाम पर विशाल बजट निकालकर स्पॉन्सरशिप, विज्ञापन और टिकट बुकिंग से मोटी कमाई कर रहे हैं।
पास/टिकट शुल्क: आम जनता से 500 से लेकर 5,000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं।
कॉर्पोरेट पैकेज और वीआईपी टेबल: कंपनियों और धनाढ्य वर्ग को खास ऑफर दिए जा रहे हैं।
ऑनलाइन बुकिंग: सोशल मीडिया और बुकिंग ऐप्स के जरिये युवा वर्ग को खासतौर पर आकर्षित किया जा रहा है।
पहले जहां मोहल्लों और मंदिर परिसरों में लोग मुफ्त या न्यूनतम सहयोग राशि पर गरबा खेला करते थे, वहीं अब ऊंचे-ऊंचे टिकट रेट ने गरीब और मध्यम वर्ग को दूर कर दिया है। मंच, डीजे, चमचमाती लाइटिंग और महंगे कलाकार बुलाने के खर्च की भरपाई जनता की जेब से की जा रही है। परिणामस्वरूप धार्मिक आस्था और परंपरा की जगह दिखावा और कारोबारी चमक-दमक हावी हो रही है।
सबसे बड़ा सवाल प्रशासन की भूमिका को लेकर है।
कई इवेंट आयोजकों ने अब तक न तो जीएसटी विभाग से अनुमति ली है और न ही पर्याप्त टैक्स जमा किया है।
अफसर शिकायत दर्ज होने का इंतजार कर रहे हैं, जबकि टिकटों की खुली बिक्री और करोड़ों का कारोबार उनकी आंखों के सामने हो रहा है।
नाम न छापने की शर्त पर कुछ अधिकारियों ने यह जरूर स्वीकारा कि “विभाग अलर्ट मोड में है” और टैक्स की वसूली की जाएगी, लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।
यह स्थिति अब समाज में चर्चा का बड़ा विषय बन गई है—
क्या नवरात्रि और गरबा महोत्सव का मकसद केवल पैसा कमाना रह गया है?
क्या देवी दर्शन और गरबा खेलने के लिए भी आम जनता को भारी रकम चुकानी पड़ेगी?
धर्म और संस्कृति के नाम पर हो रहे इस व्यापारिक खेल पर आखिर कौन नियंत्रण करेगा?
नवरात्रि उत्सव का मूल भाव “भक्ति, आस्था और संस्कृति” रहा है। लेकिन आज यह करोड़ों का व्यवसाय बनकर गरीब और सामान्य वर्ग से दूरी बना रहा है। सवाल यह है कि क्या प्रशासन और समाज मिलकर इसे सही दिशा देंगे, ताकि नवरात्रि अपनी वास्तविक पहचान—भक्ति और सांस्कृतिक मेलजोल का पर्व—बना रह सके?
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