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मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के संभावित विदेश दौरे से पहले विस्तार की चर्चा तेज़
90-सदस्यीय विधानसभा में संवैधानिक सीमा अनुसार अधिकतम 14 मंत्री (मुख्यमंत्री सहित) संभव—वर्तमान में 11
क्या 33% महिला भागीदारी की ‘आदर्श परिपाटी’ मंत्रिमंडल में दिखेगी?
रायपुर/विशेष संवाददाता शौर्यपथ
छत्तीसगढ़ में कैबिनेट विस्तार की अटकलें एक बार फिर परवान चढ़ गई हैं। सियासी गलियारों में चर्चा है कि 18 से 21 अगस्त के बीच किसी भी दिन मंत्रिमंडल में नए चेहरों को जगह मिल सकती है। फिलहाल सरकार में मुख्यमंत्री सहित 11 मंत्री हैं; संवैधानिक सीमा के अनुरूप तीन रिक्त पद भरे जा सकते हैं। चर्चा यह भी है कि इस विस्तार में महिला प्रतिनिधित्व को प्रमुखता दी जाएगी ताकि 33% आरक्षण की ‘आदर्श परिपाटी’ का संदेश कैबिनेट स्तर पर भी जाए।
मुख्य विवरण
संवैधानिक ढाँचा: अनुच्छेद 164(1A) के तहत 90-सदस्यीय विधानसभा में मंत्रिपरिषद की अधिकतम संख्या 14 तय है (मुख्यमंत्री सहित)।
वर्तमान स्थिति: सरकार में 11 मंत्री कार्यरत; 3 स्थान रिक्त।
चर्चा: 18–21 अगस्त के बीच विस्तार की संभावना—आधिकारिक घोषणा शेष।
राजभवन के ‘दरबार हॉल’ का नाम ‘छत्तीसगढ़ मंडपम’ किए जाने व यहीं शपथ समारोह की तैयारी की चर्चा—औपचारिक पुष्टि प्रतीक्षित।
महिला प्रतिनिधित्व: नारा नहीं, नीति
वर्तमान मंत्रिपरिषद में महिला मंत्रियों की संख्या 1 है। यदि कैबिनेट 14 तक भरता है, तो 33% के आदर्श मानक के हिसाब से कम-से-कम 5 महिलाओं की हिस्सेदारी का लक्ष्य प्रतीकात्मकता से आगे बढ़कर नीतिगत भागीदारी का संकेत देगा। विस्तार में कम-से-कम 1–2 नई महिला चेहरों को शामिल किए जाने की चर्चा है। बस्तर से लता उसेंडी और दुर्ग संभाग से भावना बोहरा (जिन्हें 2024 में ‘उत्कृष्ट विधायक’ के रूप में सम्मानित किए जाने का उल्लेख है) जैसे नाम सियासी चर्चा में हैं।
केंद्र स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘नारी शक्ति वंदन’ (33% आरक्षण) के पैरोकार रहे हैं और यह विधेयक संसद से पारित हो चुका है। ऐसे में छत्तीसगढ़ के लिए यह विस्तार ‘आदर्श राज्य’ की छवि गढ़ने का अवसर बन सकता है।
संभावित दावेदारों की भूमिका: दिए गए नाम सियासी चर्चाओं में चल रहे संभावित विकल्प हैं; आधिकारिक सूची/घोषणा शेष है। उद्देश्य सभी प्रमुख दावेदारों की भूमिका और संभावित संकेत को समग्रता से रखना है।
1) गजेन्द्र यादव: दुर्ग से कांग्रेस के पिछले तीस सालो से लगातार हार / जीत के बावजूद प्रत्याशी रहे अरुण वोरा को चुनावी मैदान में आसान शिकस्त दी आसान इसलिए कहा जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ कांग्रेसी ही मैदान में परदे के पीछे खड़े रहे शहर की जनता भी लगातार एक ही कांग्रेस प्रत्याशी के नामांकन से उब चुकी थी निष्क्रियता और चाटुकारिता से घिरे विधायक की छवि के कारण दुर्ग विधान सभा में चुनावी मौसम में यह चर्चा रही कि भाजपा से कोई भी प्रत्याशी मैदान में होगा जीत निश्चित है ऐसे में भाजपा प्रत्याशी गजेन्द्र यादव को आसान और बड़ी जीत मिली.वर्तमान समय में विधायक यादव और महापौर बाघमार की राजनैतिक दुरी संगठन के कार्यकर्ताओ की विधायक से दुरी के साथ साथ दल्बद्लुओ की फौज का करीबी होना चर्चा का विषय है तो सामाजिक स्तर पर यादव समाज के प्रतिनिधितत्व एक बड़ा फेक्टर साथ दे रहा है .
2) राजेश अग्रवाल (सरगुजा)
क्षेत्रीय महत्व: सरगुजा संभाग का प्रतिनिधित्व मज़बूत करता है, जहाँ संतुलन साधना आवश्यक माना जा रहा है। उत्तरी छत्तीसगढ़ की प्राथमिकताओं—सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई—पर फोकस।
3) गुरु खुशवंत साहिब (रायपुर संभाग ): गुरु खुशवंत साहिब प्रदेश के एक बड़े वर्ग के धार्मिक guru के रूप में जाने जाते है ऐसे में प्रदेश सरकार इस बड़े वर्ग को भी साधने के लिए इन्हें मौका दे सकती है . एससी /एसटी वर्ग को प्रतिनिधितव मिलने से इस वर्ग के मतदाता का रुझान भी पार्टी की तरफ ज्यादा रहेगा ऐसे में इनकी दावेदारी की भी प्रबल संभावना व्यक्त की जा रही है और इन्हें केबिनेट में जगह मिलने की बात से चर्चो का बाजार गर्म है .
4) राजेश मूणत : लंबे समय से सक्रिय और प्रशासनिक प्रक्रियाओं की जानकारी रखने वाले वरिष्ठ नेता।अनुभवी हाथों से विभागीय डिलीवरी में तेजी लाने का संकेत। किन्तु पिछली बार भाजपा की सत्ता में रहने के दौरान महत्तवपूर्ण विभाग कीई जिम्मेदारी सँभालने वाले पूर्व मंत्री राजेश मुड़त के कई विभागीय कार्यो में अनियमितता और कमीशनखोरी की चर्चो से पूर्व की भाजपा सरकार को काफी नुकसान हुआ था और सत्ता हाथ से जाने का एक बड़ा कारण भी मुड़त को माना गया .
5) अमर अग्रवाल: भाजपा के कद्दावर नेता के रूप में पहचान अनुभवी होने के साथ साथ प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ विधायक व लम्बे प्रशासनिक कार्यो का अनुभव किन्तु बड़ी अड़चन यह कि प्रदेश सरकार की वर्तमान राजनितिक गलियारों में चर्चा के अनुसार नए एवं युवा विधायको को यह मौका देने का जोर कही ना कही अमर अग्रवाल जैसे वरिष्ठ भाजपा विधायक को दरकिनार करता नजर आ रहा है वर्तमान समय में मंत्री मंडल में नए विधायको को जिम्मेदारी मिली जो सरकार की मंशा के अनुरूप जोश के साथ कार्य को अंजाम दे रहे है वही नै पीढ़ी को आगे करने की रणनीति कार्यकर्ताओ में भी उम्मीद की किरण के रूप में एक सार्थक माहौल को जन्म दे रही जो संगठन के लिए भी काफी महत्तवपूर्ण है भविष्य की राजनीती के
6) भावना बोहरा (दुर्ग संभाग ): भावना बोहरा : महिला सशक्तिकरण की नई पहचान
पंडरिया विधानसभा से पहली बार चुनाव जीतने वाली विधायक भावना बोहरा ने अपने सामाजिक और विकास कार्यों से जनता के बीच गहरी छाप छोड़ी है। धार्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभाने वाली बोहरा को 2024 में उत्कृष्ट विधायक सम्मान भी मिला। व्यावसायिक पृष्ठभूमि से आने के बावजूद उन्होंने क्षेत्र की समस्याओं पर पकड़ बनाकर प्रशासनिक दक्षता दिखाई है।
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि यदि प्रदेश सरकार उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान देती है तो यह न केवल महिला आरक्षण और महिला सशक्तिकरण की दिशा में कदम होगा, बल्कि भाजपा संगठन को भी महिलाओं के बीच सशक्त नेतृत्व प्रदान करेगा।
निष्कर्षक संकेत: यदि तीन रिक्त स्थान में 2 पुरुष + 1 महिला या 1 पुरुष + 2 महिलाएँ का फार्मूला अपनता है, तो क्षेत्रीय-सामाजिक संतुलन के साथ महिला प्रतिनिधित्व का संदेश भी जाता है। दूसरी ओर 3 पुरुष विकल्प चुनने की स्थिति में महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने का रोडमैप अगले फेरबदल में स्पष्ट करना होगा।
‘हरियाणा मॉडल’ का संदर्भ
चर्चित ‘हरियाणा मॉडल’ का आशय संख्या-संतुलन और कार्य-वितरण वाले संकुचित-सक्षम कैबिनेट से है। छत्तीसगढ़ पहले से 14 की संवैधानिक सीमा में आता है; अतः यहाँ ‘मॉडल’ का अर्थ प्रशासनिक कार्यकुशलता और संतुलित प्रतिनिधित्व की कार्यशैली से है, न कि किसी कानूनी अपवाद से।
चुनावी गणित बनाम शासन-प्राथमिकताएँ
विधानसभा चुनावों के चक्र में प्रायः अंतिम वर्ष चुनावी मोड में बीतता है। ऐसे में इस विस्तार के बाद नए मंत्रियों के पास करीब दो वर्ष होंगे—अपने विभागीय प्रदर्शन से संदेश देने के लिए। क्षेत्रीय संतुलन (रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, सरगुजा, बस्तर), सामाजिक संतुलन (ST/SC/OBC/सामान्य/धार्मिक-भाषाई समुदाय) और राजनीतिक योगदान/संगठनात्मक सक्रियता—इन तीनों कसौटियों पर संतुलित चयन सरकार की प्राथमिकताओं का संकेत देगा।
कैबिनेट विस्तार सरकार के राजनीतिक मनोविज्ञान और शासन-दृष्टि की परीक्षा है। यदि महिला प्रतिनिधित्व को अर्थपूर्ण ढंग से बढ़ाया जाता है, तो यह संदेश जाएगा कि छत्तीसगढ़ में नारी शक्ति केवल घोषणाओं तक सीमित नहीं, बल्कि निर्णय-निर्माण की मेज़ पर बराबरी से बैठी है।आधिकारिक निर्णय आते ही नामों/तिथियों/स्थल का उल्लेख अद्यतन किया जाएगा।
कोंडागांव / शौर्यपथ /
कोंडागांव जिला मुख्यालय से महज 7–8 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत ककोडी में स्थित दंतेश्वरी मक्का प्लांट इन दिनों ग्रामीणों के लिए काल साबित हो रहा है। मंगलवार सुबह ग्रामवासियों ने प्लांट परिसर में घुसकर जोरदार प्रदर्शन किया और तत्काल इसे बंद करने की मांग की। मौके पर पहुंची प्रशासनिक टीम ने समझाइश देकर स्थिति को काबू में किया, लेकिन ग्रामीणों का गुस्सा और भय अभी भी बरकरार है।
ग्रामीणों का आरोप है कि जो प्लांट किसानों और पशुपालकों के हित में लगाया गया था, वही अब ज़हर उगल रहा है। वेटकेक सड़ने से दुर्गंध फैल रही है, मवेशियों की मौत हो रही है, पेड़ सूख रहे हैं और खेत बर्बाद हो रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि लोगों का सांस लेना तक मुश्किल हो गया है। ग्रामीणों का कहना है—"आज मवेशी मर रहे हैं, कल हमारी बारी होगी।"
आंतरिक सूत्रों के अनुसार, यह स्थिति प्लांट में लगा डायर मशीन बंद होने के कारण बनी है। मजदूरों ने बताया कि डायर चालू होता तो वेटकेक को पशु और पक्षियों के उत्तम आहार में बदल दिया जाता—मुर्गी, मछली, कछुआ और मवेशियों के लिए चारा तैयार होता। लेकिन मशीन के ठप होने से वेटकेक सड़ रहा है, जिससे कीटाणु और जहरीली बदबू फैल रही है।
मामले में कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं—
डायर चालू क्यों नहीं किया गया?
मक्का से एथनॉल बनाने का दावा कर चावल (कनकी) से उत्पादन क्यों हो रहा है?
पानी निकासी की व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
क्या यह प्लांट प्रदूषण नियंत्रण के मानकों का पालन कर रहा है?
ग्रामीणों की जान-माल की सुरक्षा के लिए प्रशासनिक कदम कब उठेंगे?
ग्रामीणों की मांग है कि जब तक समस्या का स्थायी समाधान नहीं होता, तब तक प्लांट को बंद किया जाए। वहीं, प्रशासन ने जांच का भरोसा दिया है, लेकिन अब देखना यह है कि ज़िला प्रशासन इस लापरवाही पर क्या ठोस कार्रवाई करता है, क्योंकि मामला सीधे-सीधे पर्यावरण, पशुधन और मानव जीवन की सुरक्षा से जुड़ा है।
दुर्ग / शौर्यपथ / दुर्ग नगर पालिक निगम में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है, जो सीधे तौर पर महापौर श्रीमती अलका बाघमार के निर्देशों की अवहेलना और निगम की प्रशासनिक कमजोरी को उजागर करता है। महापौर के आदेश के बावजूद, मिशन क्लीन सिटी (MCC) की एक कर्मचारी अब भी जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र शाखा में काम कर रही है, जबकि उसका मूल कार्यक्षेत्र वार्डों में सफाई का है। यह घटना न केवल नियमों के उल्लंघन का प्रतीक है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि क्या दुर्ग निगम में महापौर से भी ज़्यादा प्रभावशाली कोई और है?
पिछले महीने, महापौर अलका बाघमार ने स्वयं इस नियम विरुद्ध कार्य को देखा था और स्वास्थ्य अधिकारी को तुरंत उस कर्मचारी को उसके मूल कार्य पर वापस भेजने का निर्देश दिया था। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से, महापौर के स्पष्ट आदेश के बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इस मामले की जानकारी शहरी सरकार के स्वास्थ्य प्रभारी निलेश अग्रवाल को भी दी गई थी, जिन्होंने कार्रवाई का आश्वासन दिया, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ।
यह स्थिति सीधे तौर पर प्रशासनिक अधिकारियों की मनमर्जी और महापौर के निर्देशों की खुली अवहेलना को दर्शाती है। जब शहर की प्रथम नागरिक के आदेशों का पालन नहीं हो रहा है, तो यह निगम की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। इस तरह की निष्क्रियता न केवल मेयर के पद की गरिमा को कम करती है, बल्कि यह भी बताती है कि अधिकारी और जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कितने उदासीन हैं।
इस मामले पर अब स्वास्थ्य विभाग के नोडल अधिकारी और निगम के उपायुक्त मोहेंद्र साहू के संज्ञान लेने की खबर सामने आई है। अब देखना यह है कि क्या वे इस मामले में ठोस कदम उठाते हैं या यह मामला भी पिछली शिकायतों की तरह ठंडे बस्ते में चला जाएगा। यह घटना दुर्ग के प्रशासनिक ढांचे की पोल खोलती है और यह दिखाती है कि अगर शीर्ष नेतृत्व के आदेशों का भी पालन न हो, तो आम जनता के लिए न्याय और व्यवस्था की उम्मीद रखना कितना मुश्किल है।
क्या दुर्ग निगम के अधिकारी महापौर के निर्देशों का पालन करेंगे या एक 'MCC' कर्मचारी का पदस्थापन ही अंतिम निर्णय माना जाएगा, यह समय ही बताएगा।
शौर्यपथ विशेष रिपोर्ट
"अगर केंद्र, राज्य और नगर निगम में एक ही पार्टी की सरकार होगी, तो विकास दौड़ेगा!"
यह था भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुश्री सरोज पांडे का वादा, जब उन्होंने दुर्ग की जनता से "ट्रिपल इंजन" का समर्थन मांगा था।
लेकिन आज, जब ट्रिपल इंजन से चलने वाला दुर्ग शहर गड्ढों, गंदगी और गुटबाजी के दलदल में फंसा है, जनता खुद सवाल पूछ रही है - "वादा किया था रोशनी का, फिर क्यों पसरा है अंधेरा?"
जब सरोज पांडे थीं महापौर: दुर्ग बना था विकास का पर्याय
महापौर रहते सुश्री सरोज पांडे ने दुर्ग नगर निगम को विकास की दिशा में एक नई पहचान दी थी।चौड़ी सड़कें,सुव्यवस्थित बाजार,सुंदर उद्यान,और सफाई व्यवस्था -
उस दौर में दुर्ग को "छोटा स्मार्ट सिटी" कहने लगे थे लोग।
आज उसी शहर में, जहां उन्होंने विकास की नींव रखी, वहीं अब बदहाल व्यवस्थाएं और टूटी उम्मीदें एक कटु सच्चाई बन चुकी हैं।
आज का दुगर्: नालियां जाम, सड़कों पर जान का खतरा ,अतिक्रमण से जकड़े बाजार ,आवारा पशुओं से भरा शहर ,अधूरी सड़कें , और राजेंद्र चौक जैसे व्यावसायिक हब पर सरकारी सुस्ती ,नगर निगम की 6 महीने की सत्ता और राज्य सरकार के 20 महीनों के कार्यकाल में सुधार की बजाय गिरावट ही सामने आई है।
नालियों की सफाई अब भी "प्रक्रिया में" है, पार्कों की घास सूख रही है, और जनता धूल, दुर्गंध और दुश्वारियों के बीच जूझ रही है।
गुटबाजी का गड्ढा: महापौर बनाम विधायक
शहर के दो जिम्मेदार चेहरे - महापौर और स्थानीय विधायक – आमने-सामने हैं। कोई काम अगर हो भी गया, तो उसका श्रेय लेने की राजनीतिक होड़ जारी है। सामंजस्य और टीमवर्क जैसे शब्द शहरी प्रशासन की डिक्शनरी से नदारद हो चुके हैं। विपक्ष को परिषद में बोलने तक का मौका नहीं देना लोकतांत्रिक मर्यादा का खुला उल्लंघन है।
गरीबों पर सख्ती, रसूखदारों को संरक्षण
इंदिरा मार्केट हो या कपड़ा लाइन - जहां आम ठेलेवालों को हटाया जा रहा है, वहीं बड़े दुकानदारों द्वारा बरामदे पर कब्जा बरकरार है।
भाजपा नेता के संरक्षण में राम रसोई को गलत दस्तावेजों के आधार पर करोड़ों की भूमि का आवंटन भी अब चर्चा में है, लेकिन कार्रवाई शून्य।
जनता पूछ रही - "अब किससे लें जवाब?"
क्या जवाब दें वो भाजपा संगठन जो विपक्ष में रहकर हर गड्ढे पर धरना देता था? या वो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सरोज पांडे, जिन्होंने वादा किया था कि "ट्रिपल इंजन" से दुर्ग दौड़ेगा?"
अब जब वही इंजन धुएं में उलझ गया है, तो जनता सिर्फ इंतज़ार में है कि -"कोई आए, और इन सवालों का ईमानदारी से जवाब दे!"
आईना देखिए, पोस्टर नहीं
यह सिर्फ बदहाल दुर्ग की रिपोर्ट नहीं, बल्कि उन तमाम वादों का आइना है, जो वोट से पहले बड़े-बड़े मंचों पर बोले गए थे।
महापौर रहते सरोज पांडे का विकास मॉडल आज खुद सवाल कर रहा है - "क्या भाजपा की आज की नगर सरकार उस स्तर को भी छू पाई?"
अब जनता तय करेगी -बातों के ट्रिपल इंजन से शहर नहीं चलता, ज़मीन पर पसीने से काम करना होता है।
शौर्यपथ न्यूज़ / दुर्ग / दुर्ग शहर में गुरुवार रात घटित एक सनसनीखेज घटना ने पूरे प्रशासनिक और राजनीतिक हलकों को झकझोर कर रख दिया है। छावनी के एसडीएम हितेश पिस्दा से शराब के नशे में धुत तीन युवकों द्वारा की गई बदसलूकी, धक्कामुक्की और गाली-गलौज की घटना अब एक नए मोड़ पर पहुंच गई है।
सबसे चौंकाने वाला खुलासा: SDM का भी हुआ अल्कोहल टेस्ट
विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, पुलिस ने निष्पक्षता बनाए रखने के उद्देश्य से एसडीएम हितेश पिस्दा का भी अल्कोहल टेस्ट करवाया। हालांकि, उनकी टेस्ट रिपोर्ट के संबंध में अब तक कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है।
इस पूरी घटना में पुलिस की तत्परता दिखी—तीनों आरोपियों राकेश यादव, विपिन चावड़ा और मनोज यादव, जो विद्युत नगर और कसारीडीह क्षेत्र के निवासी हैं और खुद को भाजपा का कार्यकर्ता बताते हैं—को तुरंत हिरासत में लेकर मेडिकल परीक्षण के लिए जिला अस्पताल ले जाया गया, जहां से उन्हें थाने लाकर आगे की कार्यवाही की गई।
तस्वीरें क्यों नहीं जारी हुईं? क्या कोई दबाव था?
इस मामले में एक और गंभीर सवाल उभरकर सामने आया है—आरोपियों की तस्वीरें सार्वजनिक क्यों नहीं की गईं? सूत्रों का कहना है कि पुलिस द्वारा नियमानुसार आरोपियों को जेल भेजने से पहले उनकी तस्वीरें जरूर खींची गई थीं, लेकिन इन्हें मीडिया या जनता के बीच जारी नहीं किया गया।
हालांकि पुलिस की ओर से इस पर कोई अधिकारिक बयान नहीं आया, लेकिन जानकारों का मानना है कि पुलिस प्रशासन की भी कुछ व्यावहारिक और प्रशासनिक मजबूरियां होती हैं, जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दबाव इन मजबूरियों का एक बड़ा कारण हो सकता है।
क्या सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता सिस्टम से ऊपर?
इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राजनीतिक पहचान, विशेषकर सत्ताधारी दल से जुड़ाव, व्यक्ति को कानून से ऊपर कर देती है?जब छोटे झगड़ों में भी आरोपियों की फोटो व नाम सार्वजनिक किए जाते हैं, तो इस संवेदनशील और गंभीर मामले में तस्वीरों को रोकना पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है।
कुछ दिन पहले शहर के प्रभावशाली परिवारों के युवकों की जुआ खेलते हुए तस्वीरें सार्वजनिक की गई थीं, तो फिर अब संवैधानिक पद पर बैठे अधिकारी से मारपीट करने वालों की पहचान छिपाना किस नीति के तहत आता है?
निष्कर्ष:यह मामला केवल एक सड़क दुर्घटना या व्यक्तिगत बहसबाजी भर नहीं है। यह प्रशासनिक गरिमा, राजनीतिक हस्तक्षेप और कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत की अग्निपरीक्षा बन चुका है। पुलिस प्रशासन की स्थिति कठिन है—जहां उन्हें कानून का पालन करना है, वहीं राजनीतिक परिस्थितियां भी उन्हें विवश कर सकती हैं। अब सवाल यह है कि क्या इस मामले में वास्तविक दोषियों को सजा मिलेगी या फिर यह प्रकरण भी दबावों और “समझौतों” के बीच धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चला जाएगा?