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आस्था /शौर्यपथ /राज महल की सभी रानियाँ चकित हो गईं। सोचने लगीं अरे! कौन सिद्ध पुरुष आ गया। इस भिखमंगे ने ऐसा कौन-सा पुण्य कर्म किया है कि वैकुंठ नाथ इसका पाद-प्रक्षालन कर रहे हैं। भगवान ने सुदामाजी का हाथ अपने हाथों में ले लिया है दोनों बचपन की बातें याद कर रहे हैं।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।
भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। मित्रों !
पूर्व कथा प्रसंग में भगवान ने महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न करवाया और जरासंध तथा शिशुपाल के वध के पश्चात द्वारिकापुरी लौट आए।
आइए !
सुदामा चरित्र
अब परीक्षित ने कहा- प्रभो आपने भगवान श्री कृष्ण से संबन्धित बहुत-सी कथायें सुनाईं किन्तु कृष्ण-कथा से मेरा पेट अभी भी नहीं भरा।
सा वाग यया तस्य गुणान गृणीते
करौ च तत्कर्म करौ मनश्च।
स्मरेद वसन्तम स्थिरजंगमेषु
शृणनोति तत्पुन्य कथा; स कर्ण;॥
जो वाणी भगवान गुणो का गुणगान करे वही सच्ची वाणी है। भगवान की सेवा में जो हाथ संलग्न हो वे ही सच्चे हाथ हैं वही सच्चा मन है जो भगवान का स्मरण करता रहे और श्रेष्ठ कान वे ही हैं जो भगवान की पुण्यमई कथाओं का श्रवण करते रहे।
शुकदेव जी परीक्षित का अभिप्राय समझकर ब्राह्मण सुदामा की कथा सुनाने लगे।
कृष्णस्यासीतसखाकश्चिदब्राह्मणोब्रह्मवित्तम;
विरक्त; इंद्रियार्थेषु प्रशांतात्मा जितेंद्रीय;॥
एक ब्राह्मण थे जिंका नाम सुदामा था। सुंदर दामन है जिसका वह सुदामा। कृष्ण के बचपन के मित्र। दोनों एक ही गुरु संदीपनी के आश्रम में पढ़ते थे।
सुदामाजी कर्तव्यनिष्ठ, संतोषी और जितेंद्रिय थे। घर में बड़ी गरीबी थी। कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलता था। एक दिन तंग आकर पत्नी सुशीला ने द्वारिकाधीश के यहाँ जाने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण आपके बाल-सखा द्वारिकाधीश लक्ष्मीपति हैं। पहले तो सुदामा ने आना-कानी की किन्तु पत्नी का हठ देखकर और यह विचार कर जाने को तैयार हो गए कि धन मिले या न मिले दर्शन तो मिलेगा। जीवन का सबसे लाभ यही है। खाली हाथ कैसे जाऊँ? पत्नी पड़ोस से थोड़ा चिउड़ा मांगकर लाई। लेकर चल दिए। पूछते हुए द्वारिका पुरी पहुँचे। महल के द्वार पर ही द्वारपालों ने रोक दिया। पूछा कौन हैं? कहाँ से आए हैं? सुदामा ने निवेदन किया मैं उनका मित्र हूँ। मिलना चाहता हूँ। द्वारपालों ने जाकर निवेदन किया- प्रभो द्वार पर कोई आया है आपसे मिलना चाहता है।
शीश पगा न झगा तन मे नहि जानि को आहि बसे केहि ग्रामा
धोती फटी सी-लटी दुपटी अरु पाय उपानह की नहि सामा
द्वार खड़े द्विज दुर्बल देखि रह्यो चकि सो वसुधा अभिरामा
पूछ्त दीनदयाल को धाम बतावत आपुनो नाम सुदामा॥
जैसे ही भगवान ने सुदामा का नाम सुना झट से सिंहासन से उतरकर दौड़ पड़े, द्वार पर पहुँचे सुदामा का हाथ पकड़र महल के भीतर लाए। ब्राह्मण सुदामा को राजसिंहासन पर विराजमान किया। परात में पानी मंगवाया और अपने कोमल हाथों से उनके चरण धोने लगे। सुदामा के पैर में बेवाइयाँ फटी थीं, बड़े-बड़े नुकीले कांटे चुभे थे। अपने बाल-सखा की दशा देखकर भगवान रोने लगे। एक कवि ने बड़ा ही सुंदर भाव व्यक्त किया है। भगवान कहते हैं—
काहे विहाल बिवाइन ते पग कंटक जाल गड़े पुनि जोए
हाय महादुख पायो सखा तुम आए इतै न किते दिन खोए
देखि सुदामा की दिन दशा करुणा करि के करुणा निधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहि नैनन के जल से पग धोए।
यह दृश्य देखकर राज महल की सभी रानियाँ चकित हो गईं। सोचने लगीं अरे! कौन सिद्ध पुरुष आ गया। इस भिखमंगे ने ऐसा कौन-सा पुण्य कर्म किया है कि वैकुंठ नाथ इसका पाद-प्रक्षालन कर रहे हैं। भगवान ने सुदामाजी का हाथ अपने हाथों में ले लिया है दोनों बचपन की बातें याद कर रहे हैं। कृष्ण कहते हैं- सुदामा तुमको याद है। जब हम गुरुकुल में पढ़ते थे। एक बार ईंधन लाने के लिए गुरुमाता ने जंगल में भेजा था। भयंकर वर्षा में हम फंस गए थे। रात में रहना पड़ा था। गुरुमाता ने कुछ चने दिए थे तुम अकेले ही खा गए थे। मैंने पूछा था दांत क्यों बजा रहे हो? तुमने झूठ बोला था कि ठंडी से दांत कट-कटा रहा हूँ। अभी भी झूठ बोलने की तुम्हारी आदत गई नहीं। भाभी ने भेट स्वरूप कुछ दिया है और तुम दे नहीं रहे हो। सुदामाजी तो संकोच में थे तुच्छ चिउड़ा लक्ष्मी पति द्वारिका धीश को कैसे भेंट करूँ। इसलिए सुदामाजी लज्जावश तंडुल की पोटली नहीं दे रहे थे। खैर अंतर्यामी भगवान तो सब जानते हैं। उन्होंने सुदामा की काँख में से पोटली खींच ली और ऐसे खाने लगे मानो कई दिनों से भोजन नहीं मिला हो। अरे! ये तो भक्त और भगवान के बीच की लीला है। श्री कृष्ण सुदामा जी का संकोच दूर करना चाहते हैं। बताना चाहते हैं—चिउड़ा कितना स्वादिष्ट है। एक मुट्ठी खाया दूसरी मुट्ठी खाया जैसे ही तीसरी मुट्ठी भगवान ने उठाई पास में बैठी रुक्मिणीजी से रहा नहीं गया, उन्होने हाथ पकड़ लिया बस। दो मुट्ठी चिउड़ा खाकर आपने दो लोक दान कर दिया अब तीसरा लोक भी देना चाहते हैं क्या? हम लोग कहाँ रहेंगे? अस्तु। भगवान ने ब्राह्मण देव को खूब अच्छी तरह से खिलाया-पिलाया, रात में अपने पलंग पर सुलाया रुक्मिणी आदि रानियों ने चँवर डुलाकर सेवा की प्रभु ने सुदामा जी के पैर दबाए। खूब आदर सत्कार किया। ब्राह्मण की सेवा कैसे की जाती है कृष्ण चरित्र से सीखना चाहिए। आज-कल तो कुछ लोग ब्राह्मण को दंडवत करनेमें मे भी अपनी मानहानि समझते हैं। गोस्वामी जी ने संकेत दिया—
पुजहू विप्र सकल गुण हीना
प्रातःकाल हुआ, भगवान ने प्रेमपूर्वक सुदामाजी को विदा किया किन्तु दिया कुछ नहीं। सुदामाजी रास्ते में सोचते हुए चले जा रहे हैं भगवान ने कुछ दिया नहीं फिर अपने मन को समझाते हैं अच्छा हुआ, भगवान ने कुछ नहीं दिया, नहीं तो मैं धन के मद में मतवाला होकर प्रभु को ही भूल जाता। इस प्रकार मन ही मन विचार करते-करते ब्राह्मण देवता अपने घर के करीब पहुँच गए। वहाँ का दृश्य देखकर दंग रह गए। चारों तरफ बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ सुंदर सुंदर बाग बगीचे, सरोवरों में भांति-भांति के कमलपुष्प पक्षियों का मधुर कलरव, सुंदर-सुंदर बन-ठन कर स्त्री-पुरुष यहाँ-वहाँ विचरण कर रहे हैं। सुदामा जी सोचने लगे- आखिर इतना सुंदर यह किसका स्थान है? मेरी झोपड़ी कहाँ गई, मेरी पत्नी, बच्चे कहाँ गए? क्या भगवान कैसी आपकी लीला है कुछ पाने के लिए गया और अपना सब कुछ खो बैठा। इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि सुंदर-सुंदर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजे के साथ मंगल गीत गाते हुए सुदामाजी का स्वागत करने आए। सुदर आभूषणों में सजी-धजी लक्ष्मीजी की तरह शोभयमान पत्नी सुशीला ने बड़े प्रेम-भाव से पतिदेव को प्रणाम किया और महल में ले आई। इस प्रकार समस्त धन-दौलत की समृद्धि देखकर और कोई प्रत्यक्ष कारण न देखकर ब्राह्मण सुदामा जी विचार करने लगे मेरे पास इतनी संपत्ति कहाँ से आई। मैं जन्म से ही दरिद्र ब्राह्मण। अवश्य ही त्रिभुवन पति श्रीकृष्ण की कृपा का ही चमत्कार है। एक मुट्ठी चिउड़े के बदले में भगवान ने सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान कर दिया।
नूनम बतैतन्मम दुर्भगस्य शश्वदरिद्रस्य समृद्धि हेतु;
महाविभूते रवलोकतोsन्यो नैवोपपद्येत यदुत्तमस्य ॥
अंत में सम्पूर्ण धन ऐश्वर्य को छोड़कर श्री सुदामा जी भगवान में समर्पित हो गए।
सूर दास प्रभु कामधेनु छोरि, छेरी कौन दुहावे।
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
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