August 06, 2025
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शौर्यपथ / सामुद्रिक शास्त्र में व्‍यक्‍ति के कानों के प्रकार के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अनुसार मनुष्य के कान अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें छोटे कान, अत्यधिक छोटे कान, लंबे कान, चौड़े कान, गजकर्ण कान यानी हाथी जैसे कान, बंदर जैसे कान, मोटे कान, पतले कान, अव्यवस्थित कान आदि।

छोटे कान: सामुद्रिक शास्त्र में छोटे कान के व्यक्तियों को कंजूस की श्रेणी में रखा गया है। ऐसे व्यक्ति धन पकड़कर रखना जानते हैं। स्वयं की जरुरतों पर भी खर्च करने से तब तक बचते हैं जब तक कि अत्यंत जरुरी ही ना हो जाए। ऐसे व्यक्तियों का सामाजिक जीवन कमजोर होता है। इनकी कोई पूछ-परख भी नहीं करता है और ये हर व्यक्ति, हर काम को एक प्रकार की संदेहभरी दृष्टि से देखते हैं। हालांकि कई मामलों में ये भरोसेमंद होते हैं।

अत्यधिक छोटे कान : अत्यधिक छोटे कान के व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति के माने जाते हैं। धार्मिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन इसके विपरीत ये लोग धार्मिक कार्यों से ही मोटी रकम बनाते हैं। ये लालची किस्म के होते हैं और किसी को धोखा बड़ी चतुराई से दे सकते हैं। इनका चंचल स्वभाव इन्हें कई बार बड़ी मुसीबतों में डाल देता है।

लंबे कान : लंबे कान परिश्रम के सूचक हैं। जिन व्यक्तियों के कान लंबे होते हैं वे परिश्रमी तथा कर्मठ होते हैं। ये कभी किसी काम में पीछे नहीं हटते और जो काम हाथ में लेते हैं, उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं, चाहे उसमें कितनी ही कठिनाइयां आएं। लंबे कान बुद्धिमान व्यक्तियों के होते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी भी बात का गहराई से अध्ययन करने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं।

चौड़े कान: जिन व्यक्तियों के कान की चौड़ाई उनकी लंबाई की अपेक्षा ज्यादा होती है, वे चौड़े कान कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति भाग्यशाली कहे गए हैं। ये अपनी मेहनत और लगन से जीवन में सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं। ये लोग हाथ आए किसी भी ऐसे मौके को जाने नहीं देते, जो इनके लिए लाभदायक होता हो। चौड़े कान सफलता के सूचक हैं।

मोटे कान : मोटे कान के व्यक्ति साहसी और सफल नेतृत्वकर्ता होते हैं। ऐसे व्यक्ति मोटिवेशनल स्पीकर, राजनेता या लेखक होते हैं। हालांकि इनका स्वभाव थोड़ा चिड़चिड़ा किस्म का होता है। अगर इन्हें कान के कच्चे होते हैं। ये किसी भी काम को उत्साह के साथ शुरू करते हैं।

गज कर्ण: हाथी के समान बड़े कान शुभता का प्रतीक हैं। हाथी के समान बड़े कान शुभता का सूचक हैं। ऐसे व्यक्ति अपने कार्य में सफल और दीर्घायु होते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज में खूब प्रतिष्ठा हासिल करते हैं। ये अच्छे वक्ता के साथ अच्छे श्रोता भी होते हैं। पूरी बात को अच्छे से सुनने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। बड़े अधिकारियों के ऐसे कान होते हैं।

बंदर जैसे कान : बंदर जैसे कान वाले व्यक्ति लालची किस्म के होते हैं। इनकी निगाह हमेशा दूसरों के धन और वस्तुओं पर लगी रहती है। ये अत्यंत कामी और क्रोधी भी होते हैं। इनकी बात पूरी नहीं होती है तो ये क्रोधित हो जाते हैं और मारपीट पर उतारु हो जाते हैं।

खेल / शौर्यपथ / खेल के मैदान में अपने आक्रामक व्यवहार के लिए कई बार मुसीबत का सामना करने वाले दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज कगिसो रबाडा ने कहा कि वह जल्दी गुस्से में नहीं आते, लेकिन गेंदबाज के तौर पर जुनून के कारण वह इस तरह से पेश आते है। इस साल इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू टेस्ट सीरीज के आखिरी मैच से 25 साल के इस गेंदबाज को निलंबित (पिछले 24 महीने में चार डिमैरिट अंक होने पर) कर दिया गया था। वह सीरीज के तीसरे मैच में जो रूट का विकेट चटकाने के बाद जश्न मनाते हुए इंग्लैंड के इस कप्तान के काफी करीब पहुंच गए थे।

रबाडा ने इंडियन प्रीमियर लीग की अपनी टीम दिल्ली कैपिटल्स के साथ इंस्टाग्राम चैट में कहा, ''बहुत से लोगों को लगता है कि मैं जल्दी आपा खो देता हूं। मुझे हालांकि ऐसा नहीं लगता, यह सिर्फ जुनून के कारण होता है। इसके अलावा अगर आप छींटाकशी को देखते हैं तो यह खेल का हिस्सा है। हर तेज गेंदबाज ऐसा करता है।''


उन्होंने कहा, ''कोई भी तेज गेंदबाज बल्लेबाज से (खेल के दौरान) अच्छा व्यवहार नहीं करेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि आप निजी या परिवार को लेकर टिप्पणी करे।'' रबाडा के निलंबन के बाद दक्षिण अफ्रीका ने उस मैच को गंवा दिया था और इंग्लैंड ने 3-1 से सीरीज अपने नाम की।

इस तेज गेंदबाज को दो डिमैरिट अंक ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 2018 टेस्ट में मिले थे । इसके बाद उन्होंने भारत के सलामी बल्लेबाज शिखर धवन को आउट करने के बाद अपशब्द कहे थे। रबाडा ने कहा, ''आप विकेट का जश्न मनाते हैं, लेकिन मैच के बाद उस खिलाड़ी से हाथ भी मिलाते है और उसके कौशल का सम्मान करते है। ज्यादातर मौके पर मैं उस आक्रामक नहीं होता हूं लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट हर खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहता है।''

दक्षिण अफ्रीका के इस मुख्य गेंदबाज ने कहा, ''कभी-कभी आपकी भावना आपको इसके लिए उकसाती है। मुझे लगता है ऐसे समय में मैं काफी खतरनाक रहता हूं, क्योंकि मैं सोचना छोड़ देता हूं और सब कुछ खुद ब खुद होने लगता है।''

 

मेरी कहानी /शौर्यपथ /चूंकि गंदगी करना दुनिया का सबसे खराब काम है, इसलिए सफाई करना श्रेष्ठतम। फिर भी दुनियादारी का ऐसा उल्टा विधान है कि गंदगी करने वाला अमीर होता है और सफाई करने वाला गरीब। वह लड़का भी गरीब था और बर्तन धोने का काम करता था। मन भले बहुत न जमा हो, पर धोने में हाथ जम गया था। ढूंढ़ता रहता था, कहीं और धोने की कोई अच्छी नौकरी मिल जाए, तो जेब में दो डॉलर और डलें। एकाध पीढ़ी पहले गुलाम रहे परिवार के इस लड़के की पढ़ाई-लिखाई तो लगभग शुरू होते ही छूट गई थी। संसाधनों से वंचित और आकार में विशाल उसके परिवार में न तो पढऩे का माहौल था और न शिक्षा पर भरोसा। किशोर होते ही लड़के मजदूरी के लिए निकल लेते थे। उस लड़के के साथ भी यही हुआ। एक-एक अक्षर छू-छूकर बमुश्किल पढ़ पाता था, लेकिन अखबार में बर्तन धोने वालों के लिए निकली नौकरियों वाले कॉलम को जरूर देखता था। उस दिन भी उसने कॉलम देखा और निराश हो गया, कुछ भी रुचिकर नहीं था। उसने अखबार को हवा में उछाला और अचानक उसकी नजर एक विज्ञापन पर जा लगी, वहां लिखा था - एक्टर्स वांटेड। उसने अखबार को सुलझाकर थामा, किसी नाटक मंडली को अभिनेताओं की जरूरत है। ऑडिशन चल रहा है। लड़के ने गौर किया, ऑडिशन वाली जगह दूर नहीं थी, तो चलो परख लें किस्मत। एक बार कोशिश करने में क्या बुरा है? और वह ऑडिशन के लिए सही समय पर पहुंच गया। नीग्रो नाटक मंडली थी। ऑडिशन की बारी आई, तो निर्देशक ने उस लड़के के हाथों में एक किताब देकर कहा, 'लो, यह पढ़कर सुना दोÓ।
हाथ में किताब क्या आई, मुसीबत ले आई। एक तो टो-टो कर पढऩा और ऊपर से अंग्रेजी शब्दों का बहामियन उच्चारण। बार-बार कोशिश करते हुए भी बंटाधार हो गया। हाथों से किताब छिन गई, मानो खुशकिस्मती लुट गई। निर्देशक ऐसा भड़का कि उस दुबले-पतले 16-17 साल के लड़के को दरवाजे की ओर धकिया दिया। दुखी लड़के ने पलटकर देखा और फिर सरेआम फटकार का सिलसिला चला, 'दफा हो जाओ यहां से, दूसरों का समय बरबाद करने आए हो? बाहर निकलो, जाओ कुछ और करो, बर्तन धोना या वैसा ही कोई काम पकड़ लो। तुम पढ़ नहीं सकते, तुम बोल नहीं सकते, तुम एक्टर नहीं बन सकते।Ó
लड़के ने अभी पीठ भी नहीं दिखाई थी कि दरवाजा बंद हो गया। अपमान का कोई एक घूंट हो, तो पचा लिया जाए, लेकिन यहां तो सामने जहर का जखीरा ही उलट दिया गया। निर्देशक की बातें दिल पर जा लगीं। गरीब थे, गुलामों का खानदान था, लेकिन कभी किसी ने इतनी बुरी तरह दुत्कारा नहीं था। कला की दुनिया में ऐसी बेरहमी? मैं पढ़-बोल नहीं सकता, मैं एक्टर नहीं बन सकता, यहां तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन उस निर्देशक ने यह कैसे कह दिया कि मुझे बर्तन धोने का काम करना चाहिए? मैंने तो वहां बताया भी नहीं था कि मैं यही काम करता हूं। क्या मेरा चेहरा बोल रहा है कि मैं बर्तन धोने वाला हूं? सच है, मैं बर्तन धोता हूं, तो क्या एक्टर नहीं बन सकता?
ऐसा लगा कि यह सवाल आसपास की हवा, पौधे, पेड़, सड़क, घर, भवन, सब पूछने लगे हैं। यह सवाल लड़के के अंदर भी गूंजने लगा और तभी दुनिया में एक महान अभिनेता सिडनी पोइटियर (जन्म 1927) का विकास शुरू हुआ। उस दिन ऑडिशन देकर सिडनी वापस बर्तन धोने पहुंच गए थे। अब जब-जब बर्तन चमकाते, उनका संकल्प भी निखर-उभर आता, एक्टर बनके दिखाना है। सिडनी ने तय कर लिया कि पहले अपनी कमियों को दूर करना है।
फिर स्कूल जाने का सवाल ही नहीं उठता था और न कहीं विधिवत अभिनय सीखना मुमकिन था। जो करना था, खुद करना था। न पैसा, न मौका, न सुविधा। वह जहां बर्तन धोते थे, वहीं एक उम्रदराज वेटर से पढऩा सीखने लगे। काम खत्म करके रोज अखबार पढऩे का अभ्यास तेज हुआ। अपने बहामियन उच्चारण से अलग शुद्ध अमेरिकी उच्चारण की कोशिशें रंग लाने लगीं। सही से पढऩा और अच्छे से बोलना सीखने में बस पांच महीने लगे। छठे महीने में उसी नाटक मंडली में न सिर्फ ऑडिशन कामयाब रहा, बल्कि अगले नाटक में मुख्य भूमिका भी नसीब हुई। नाटक करते-करते फिल्में मिलने लगीं, दुनिया एक्टर के रूप में पहचानने लगी। फिर वह समय भी आया, जब अभिनय की दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान ऑस्कर उनकी झोली में आया। 1963 में लिलिज ऑफ द फिल्ड के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर हासिल हुआ। वह यह सम्मान पाने वाले दुनिया के पहले अश्वेत अभिनेता हैं। सिडनी अक्सर अपमान के उस लम्हे को याद करते हैं और यह भी मानते हैं कि वह न होता, तो यह मुकाम भी न होता।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय सिडनी पोइटियर प्रसिद्ध अभिनेता, फिल्मकार

 

     जीना इसी का नाम है /शौर्यपथ / वह जिस देश और समाज से आती हैं, वहां बेटे और बेटियों में भले कभी फर्क रहा हो, मगर आज वह दुनिया के सबसे तरक्कीपसंद समाजों में से एक है। अमेरिका की न्यू जर्सी प्रांत में पैदा मैरी रॉबिन्सन की परवरिश एक खुले माहौल में हुई। अपने पापा की बेहद दुलारी रहीं मैरी। उनका परिवार एक अच्छी और खुशहाल जिंदगी जी रहा था। मगर जिंदगी तो सबका इम्तिहान लेती है, सो मैरी के लिए भी उसने कुछ आजमाइशें तय कर रखी थीं।
आज से करीब 46 साल पहले की बात है। तब मैरी की उम्र सिर्फ 14 साल थी। एक रोज उन्हें पता चला कि पिता कैंसर के आखिरी स्टेज पर हैं। और मैरी कुछ समझ पातीं, इसके पहले ही पिता चल बसे। उनके जनाजे में पूरे रास्ते मैरी अपने भाई को पकडे़ खामोश चलती रहीं। उन्हें यह यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि डैड अब कभी उनसे बातें नहीं कर सकेंगे। मैरी को गहरा मानसिक आघात लगा था, लेकिन कोई भी उनकी और उनके भाई की जहनी कैफीयत को समझने वाला नहीं था।
मैरी खुद में सिमटती चली गईं। उन्होंने दोस्तों के साथ बाहर खेलने जाना बंद कर दिया, पढ़ाई से भी मन उचट गया, जाहिर है, उनके ग्रेड गिरने लगे थे, वह बात-बात पर झल्ला उठती थीं। मैरी के भाई के व्यवहार में भी काफी बदलाव आ गया था। उन दोनों को उस वक्त किसी ऐसे परिजन या बडे़ स्नेही की जरूरत थी, जो उनके मर्म को छू पाता।इसके उलट उन्हें बिगडे़ बच्चे के रूप में देखा जाने लगा। मैरी कहती हैं, ‘मैं बुरी नहीं, उदास बच्ची थी।’
करीब छह वर्षों तक अपनी पीड़़ा और उदासी से मैरी रॉबिन्सन अकेले ही जूझती रहीं। फिर वह दुखी और अनाथ बच्चों की सहायता करने वाले एक समूह से बतौर वॉलंटियर जुड़ गईं। वहां बच्चों की मदद करके मैरी को काफी सुकून मिलता। फिर उन्होंने एक बड़ा फैसला किया और करीब दो दशक पहले अपनी नौकरी छोड़ दी, ताकि वह गमगीन बच्चों को अपना पूरा वक्त दे सकें। मैरी यह अच्छी तरह जान चुकी थीं कि जब किसी मासूम के मां-बाप, भाई-बहन में से किसी की मौत हो जाती है, तो उसे कितना गहरा सदमा पहुंचता है, इसलिए वह नहीं चाहती थीं कि कोई बच्चा या किशोर-किशोरी वर्षों तक शोक की हालत में रहे।
एक अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका में लगभग पचास लाख बच्चे 18 साल से पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन में से किसी न किसी प्रियजन को खो देते हैं। और ऐसे बच्चों के अवसाद-ग्रस्त होने, अपना आत्म-विश्वास खो देने या पढ़ाई में पिछड़ जाने का जोखिम सबसे ज्यादा होता है। इन्हीं सबको देखते हुए साल 2011 में मैरी ने एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इमैजिंग, अ सेंटर फॉर कोपिंग विद लॉस’ की नींव रखी। इसके जरिए वह किसी अजीज परिजन की मौत के गम से डूबे बच्चों की सहायता करने में जुट गईं।
बच्चों की मदद करने का मैरी का तरीका काफी अनूठा है। इसकी शुरुआत वह एक पिज्जा पार्टी से करती हैं। इससे सबको आपस में घुलने-मिलने का मौका मिलता है और फिर बच्चों के परिवार के सदस्य और संस्था के वॉलंटियर एक घेरा बनाते हैं और एक ‘टॉकिंग स्टिक’ आपस में पास करते हैं। फिर जिसकी बारी आती है, वह अपनी दास्तान सुनाता है कि उसने अपने किस अजीज परिवारी-जन को खोया है। मैरी का मानना है कि शोक से बाहर निकालने में उस व्यक्ति का जिक्र बहुत अहम रोल निभाता है, जो हमसे हमेशा के लिए बिछड़ा है।
बच्चों को लगता है कि हरेक व्यक्ति ने अपने किसी न किसी प्रिय जन को खोया है और यही एहसास असरकारी दवा का काम करता है। मैरी के मुताबिक, हरेक बच्चा, बल्कि किशोर भी, अपने दिवंगत प्रिय के किसी चुटीले वाकये या उनकी जिंदगी की किसी यादगार घटना के बारे में बार-बार सुनना चाहता है। कभी उसकी आंखों से, तो कभी गहरी सांसों के साथ भीतर की पीड़ा पिघलकर बाहर आ जाती है। उम्र के हिसाब से शोकाकुल बच्चों को अलग-अलग समूहों में बांटा जाता है। संगठन के स्वयंसेवी उन्हें मेमोरी बॉक्स जैसी गतिविधियों के जरिए अपनी भावनाएं साझा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। बच्चे मानो ज्वालामुखी की तरह अपने भीतर के सारे दुख, आक्रोश को बाहर फेंककर शांत हो जाते हैं। मैरी कहती हैं, ‘शोक तो जिंदगी का अटूट हिस्सा है, मगर हमारे बच्चों को कोई नहीं बताता कि वे इससे कैसे उबरें?
इमैजिंग में आने वाले बच्चे जब अपनी मानसिक वेदना से मुक्त होकर अपने दिवंगत परिजन को याद करते हैं, तो मैरी को लगता है कि उनके पिता जहां भी होंगे, जरूर खुश होंगे कि उनकी बेटी ने कुछ अच्छा किया है। उन्होंने अब तक सैकड़ों मासूमों को गहरे शोक से उबारा है। इतना ही नहीं, मैरी अब घूम-घूमकर देश-दुनिया के स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देती हैं कि शोकाकुल बच्चों के प्रति उनका आचरण कैसा होना चाहिए। इस नेक काम के लिए सीएनएन ने मैरी रॉबिन्सन को पिछले साल ‘हीरो ऑफ द ईयर’ के लिए नामित किया था।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह मैरी रॉबिन्सन अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता

 

नजरिया /शौर्यपथ / सभ्य समाज में सार्वजनिक स्थानों पर थूकने को कभी अच्छा नहीं माना गया है, लेकिन खेलों में खिलाड़ियों का थूकना आम बात है। फुटबॉल और बेसबॉल खिलाड़ियों को थूकते देखना बहुत आम है, लेकिन कोरोना संक्रमण थूक के छींटे के माध्यम से भी होता है, तो खेल जगत खिलाड़ियों की इस आदत से दहला हुआ है। फुटबॉल और क्रिकेट में खिलाड़ियों के मैदान में थूकने पर एकदम से रोक लगाने पर आजकल बहस चल रही है।
पिछले दिनों रोमानिया फुटबॉल फेडरेशन ने सुझाव दिया कि कोई भी खिलाड़ी मैदान में थूकता पाया जाए, तो उस पर छह से 12 मैचों का प्रतिबंध लगा दिया जाए। इसके अलावा कुछ लोग मैदान में थूकने वाले खिलाड़ी को येलो कार्ड दिखाकर बुक करने का सुझाव दे रहे हैं। इनका मानना है कि बिना सजा इस समस्या से निजात पाना संभव नहीं है। लेकिन विश्व फुटबॉल की संचालक संस्था फीफा को लगता है कि मैच का संचालन करने वाले अधिकारियों के लिए यह पता लगाना संभव नहीं होगा कि कौन खिलाड़ी कब थूक रहा है। इसलिए फीफा रेफरी कमेटी के चेयरमैन कोलिना का कहना है कि लीग या टूर्नामेंट के आयोजक मसविदा बनाएं और थूकने वाले खिलाड़ियों पर मैच के बाद हिसाब से कार्रवाई की जाए। कोलिना कहते हैं कि मैदान में थूकने वाले खिलाड़ी को येलो कार्ड दिखाना थोड़ा अव्यावहारिक भी होगा, क्योंकि एक तो मैच के संचालक के लिए हर घटना पर निगाह रखना संभव नहीं होगा और कुछ पर कार्रवाई करना उनके साथ अन्याय हो जाएगा। फुटबॉल में किसी खिलाड़ी का दूसरे खिलाड़ी पर थूकना रेड कार्ड वाला अपराध है और सामान्य तौर पर थूकने वाले के प्रति इतनी कठोर कार्रवाई उचित नहीं लगती।
क्रिकेट में तेज गेंदबाज गेंद चमकाने के लिए लार का प्रयोग करते हैं। लार से संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। तेज गेंदबाज गेंद के एक हिस्से को चमकाकर गेंद का संतुलन बिगाड़ देते हैं, जिससे गेंद स्विंग होने लगती है। आईसीसी की क्रिकेट समिति ने फिलहाल गेंद पर लार के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है, लेकिन उसने तेज गेंदबाजों के मैदान पर थूकने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है। आने वाले दिनों में मैदान पर थूकने पर भी पाबंदी की मांग उठ सकती है। समिति के प्रमुख अनिल कुंबले का कहना है कि गेंद पर लार का इस्तेमाल नहीं करना अंतरिम व्यवस्था है, कोरोना की समस्या खत्म होने पर यह प्रतिबंध खत्म हो सकता है।
अब सवाल यह है कि खिलाड़ी मैदान में थूकते क्यों हैं? तमाम अध्ययनों के अनुसार, ज्यादा कसरत या मेहनत करने पर लार में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है। खासतौर से म्यूकस की मात्रा बढ़ने से थूक गाढ़ा हो जाता है, जिसे निगलना मुश्किल होता है। ऐसे में, सांस लेने में दिक्कत होने लगती है और थूकने से ही स्थिति सामान्य होती है। क्रिकेट में खिलाड़ियों को लगातार नहीं दौड़ना पड़ता, इसलिए थूकने की समस्या कम होती है। इसमें आमतौर पर तेज गेंदबाज लंबे रनअप की वजह से थूकते मिल जाते हैं। टेनिस खिलाड़ी ब्रेक के समय ड्रिंक के कारण थूकने की समस्या से बचे रहते हैं। थूकने की मजबूरी फुटबॉल में ज्यादा है।
क्या फुटबॉलरों के थूकने पर रोक लगने से उनके खेल पर गलत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा? शायद मैच के दौरान खिलाड़ियों का गला तर रखने की व्यवस्था करनी पडे़गी। इसके अलावा खिलाड़ियों को मैदान पर मिलकर जश्न मनाने से बचने की सलाह दी गई है। अक्सर खिलाड़ी खुशी में एक-दूसरे पर कूद पड़ते हैं। मैचों में आमतौर पर दोनों टीमों के कप्तान सद्भाव के तौर पर एक-दूसरे से जर्सी बदलते हैं, इस पर भी रोक लगा दी गई है।
ऐसी समस्याएं अनेक खेलों में आएंगी। खिलाड़ियों द्वारा मिलकर घेरा बनाना बंद हो जाएगा। टेनिस में तो अपनी गेंदें और तौलिया लाने की शुरुआत की जा रही है। सवाल यह है कि इतना सब होने के बाद भी क्या खेलों में पहले जैसा लुत्फ बना रहेगा? पिछले दिनों शुरू हुई जर्मन फुटबॉल लीग के मैच बिना दर्शक खेले जा रहे हैं। इसी तरह इंग्लिश प्रीमियर लीग की भी शुरुआत होने जा रही है। जुलाई में इंग्लैंड और वेस्ट इंडीज के बीच क्रिकेट सीरीज भी बिना दर्शक खेली जानी है। इन हालात में दर्शकों का खेलों के प्रति कितना लगाव बना रहता है, यह भी शायद कोरोना से ही तय होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) मनोज चतुर्वेदी, वरिष्ठ खेल पत्रकार

 

 

सम्पादकीय लेख / शौर्यपथ / केरल में एक हथिनी की जिस तरह दर्दनाक मौत हुई है, उससे न केवल कानून-व्यवस्था, बल्कि मानवीयता पर भी सवाल खडे़ हो गए हैं। अब जब भारी विरोध और आलोचना के बाद इस मौत या हत्या के दोषियों की गिरफ्तारी शुरू हो गई है, तब हमें पशु क्रूरता निवारण की दिशा में हर पहल का स्वागत करना चाहिए। गांधीजी ने स्पष्ट इशारा किया था कि आपकी सभ्यता की परख इस बात से होगी कि आप अपने पशुओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। लेकिन पता यह लगा है कि फल में छिपाकर पशुओं को बारूद या पटाखे खिला देना नई बात नहीं है। चुपचाप न जाने कितने पशु मार दिए गए होंगे। वह गर्भवती हथिनी भी बारूद वाला अनानास खाकर वहीं मारी जाती, तो यह खबर देश-दुनिया में सुर्खियां नहीं बनती, शायद अब तक ऐसा ही होता आया होगा। पर वर्षों से चल रहे इस अत्याचार का घड़ा शायद भर गया था। निर्दोष बेजुबानों की पीड़ा तब दूर तलक गई, जब उस बुरी तरह घायल हथिनी ने तीन दिन पानी में खड़े होकर लगभग सत्याग्रह या विलाप किया। हथिनी अकेली नहीं थी, उसके पेट में शिशु था। यह एक ऐसा घटनाक्रम है, जो दशकों तक याद रखा जाएगा और संवेदनशील लोगों को रुलाता रहेगा। आम तौर पर घायल होने के बाद जानवर आक्रामक हो जाते हैं, लेकिन वह हथिनी आक्रामक नहीं हुई, असह्य वेदना से बचने के लिए और शायद अपने गर्भ की चिंता में वह पानी की गोद में जा खड़ी हुई। काश! उसे तुरंत पानी से बाहर निकाल लिया जाता और उसका हरसंभव इलाज हो पाता, तो मानवता यूं शर्मसार नहीं हो रही होती।
दोषियों को कतई माफ न किया जाए, साथ ही, अपनी फसलों को बचाने के इस बारूदी तरीके पर भी पूरी कड़ाई से रोक लगनी चाहिए। अभी पशुओं के साथ होने वाली क्रूरता को रोकने के लिए जो कानून हैं, वे शायद अपर्याप्त हैं और उन्हें लागू करने में सरकारी एजेंसियों की कोई खास रुचि नहीं है। ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए केरल सरकार को अपने स्तर पर पूरे इंतजाम करने होंगे। केरल की व्यापक छवि में हाथियों की अपनी गरिमामय उपस्थिति है। इसी प्रेम भाव के विकास के लिए पूरे राज्य में काम होने चाहिए। केरल या उसके किसी जिले या किसी समुदाय के खिलाफ नफरत की राजनीति समस्या का निदान नहीं है, लेकिन यह विवाद जिस तरह से बढ़ रहा है, उससे लगता है, यह सड़क, कोर्ट से विधानसभा तक गरमाएगा। अत: पशुओं के अधिकारों के लिए सक्रिय लोगों को पूरी सावधानी और संयम से स्थाई समाधान की ओर बढ़ना होगा, तभी वे लक्ष्य तक पहुंचेंगे।
वैसे हाथियों के प्रति क्रूरता केवल केरल की समस्या नहीं है। छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखंड, ओडिशा, पूर्वोत्तर से भी शिकायतें आती रहती हैं। इन हाथियों को जंगल से बाहर न आना पडे़, इसके प्रबंध बार-बार चर्चा व सिफारिश के बावजूद नहीं हो रहे हैं। कई बार चर्चा हुई है कि हाथियों के लिए जंगलों में फलदार पेड़ों के गलियारे होने चाहिए, ताकि उनकी जरूरत वहीं पूरी हो जाए। अब समय आ गया है, जब हाथी ही नहीं, तमाम वन्य जीवों-पशुओं को तरह-तरह से मारने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगना चाहिए। तभी अपार पीड़ा से लाचार उस हथिनी का जल-सत्याग्रह सफल होगा और हम अपने हृदय में मानव होने का तार्किक गर्व सहेज सकेंगे।

 

मेलबॉक्स / शौर्यपथ / धरती पर मानव ही ऐसा प्राणी है, जो अच्छे और बुरे का भेद कर सकता है। मगर केरल की घटना ने ईश्वर की सबसे सुंदर रचना पर शक की चादर चढ़ा दी है। वहां एक गर्भवती हथिनी के साथ किया गया व्यवहार दुखी करने वाला है। इस घटना से यह समझ नहीं आ रहा कि वास्तव में जानवर कौन है? वह हथिनी, जो पीड़ा में भी शांत होकर पानी में खड़ी रही या फिर वे इंसान, जिन्होंने इस बेजुबान को फल में बम खिला दिया। हथिनी के पेट में पल रहे बच्चे ने भी शायद यही सोचा होगा कि अगर मानव ऐसे होते हैं, तो ठीक है कि मैं धरती पर नहीं आया। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब-जब मानव इंसानियत से दूर हुआ है, तब-तब उसे इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है।
ललित शंकर, मावना, मेरठ

सबकी है दुनिया
विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रकाशित अनिल प्रकाश जोशी का लेख ‘यह दुनिया सिर्फ इंसानों की नहीं’ पढ़ा। वाकई, इस दुनिया पर जितना हमारा अधिकार है, उतना ही उन लाखों जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों का भी है, जिनको प्रकृति ने हमारे साथ जीवन दिया है। चूंकि इंसान सबसे बुद्धिमान प्राणी है, इसलिए उसे पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। लेकिन दुखद यह है कि हम पर्यावरण को बचाने के लिए समय-समय पर बातें तो खूब करते हैं, लेकिन जिस तरह से उन पर काम होना चाहिए, वह नहीं करते। हमें अपने आसपास की आबोहवा साफ रखनी ही होगी, अन्यथा मानव जीवन शायद ही बचा रह सकेगा।
विजय कुमार धनिया, नई दिल्ली

बढ़ता तनाव
केरल के एक गांव में नौवीं कक्षा की एक छात्रा ने जिस तरह से आत्महत्या की, उससे कई सवाल उठ खड़े होते हैं। कहा जा रहा है कि ऑनलाइन पढ़ाई न कर पाने की वजह से वह दबाव में थी। यह बेहद अफसोस की बात है कि एक बच्ची पढ़ना चाहती थी, पर संसाधन के अभाव में हताशा के गर्त में चली गई और अपनी जान दे बैठी। सचमुच, सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे इतने संपन्न नहीं होते कि उनके पास स्मार्टफोन, टीवी, केबल आदि हों। ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन और इंटरनेट की जरूरत पड़ती है। उस बच्ची के पिता दिहाड़ी मजदूर हैं। संभवत: पिता की आर्थिक मजबूरी रही होगी कि वह अपनी बेटी की ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरूरी संसाधन नहीं जुटा पाया। दिक्कत यह है कि सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई शुरू तो कर दी, लेकिन इसके लिए अपनी तैयारी पूरी नहीं की। कुछ समय लगाकर पहले अभिभावकों को तैयार करना जरूरी था। यह घटना सबक दे रही है कि हमें अपने आसपास ऐसे परिवारों की खोज-खबर जरूर लेनी चाहिए, जिनके मुखिया की आजीविका इस लॉकडाउन में चली गई हो और बुनियादी जरूरतें भी वह पूरी नहीं कर पा रहा हो।
विनय मोहन, सेक्टर 18, जगाधरी

अमानवीय कृत्य
केरल में गर्भवती हथिनी के साथ हुई बर्बरता हृदय-विदारक है। हमारे संविधान में सभी जीवों के प्रति दया की भावना रखने की बात मौलिक कर्तव्यों में कही गई है। हमारी संस्कृति में भी कई जीवों को पूजनीय माना जाता है और अहिंसा को महत्व दिया जाता है। ऐसे में, देश के सबसे शिक्षित राज्य में ऐसी अमानवीय घटना हमें चिंतित करती है। शत-प्रतिशत साक्षरता का भला क्या उद्देश्य होना चाहिए? क्या शिक्षा-व्यवस्था में सुधार की जरूरत है? जानवरों के अधिकारों को लेकर हमें ज्यादा गंभीर होना चाहिए। यह सही है कि देश में हर व्यक्ति को उनके अधिकार नहीं मिल पाते हैं, लेकिन मानवाधिकार और अन्य जीवों के अधिकार की बात एक साथ होनी चाहिए। ऐसा क्रूरतापूर्ण काम करने वालों से भला मानवता की क्या उम्मीद की जाए!
प्रीतीश पाठक
बलवाहाट, सहरसा

 

ओपिनियन / शौर्यपथ / प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच हुई शिखर-वार्ता समोसा और गुजराती खिचड़ी की चर्चा के साथ खत्म हुई; इस वादे के साथ कि समोसे और खिचड़ी साझा किए जाएंगे। लेकिन फिलहाल यह मुमकिन नहीं था, क्योंकि वार्ता वर्चुअल (आभासी) थी, एक डिजिटल माध्यम के जरिए दोनों देशों के नेता एक-दूसरे से रूबरू हो रहे थे।
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच यह शिखर-वार्ता द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण थी। दोनों देशों के बीच कई समझौते हुए, दोनों ने एक-दूसरे के मिलिट्री बेस के इस्तेमाल का बेहद महत्वपूर्ण समझौता भी किया। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे व्यापार और साझेदारी का एक नया मॉडल बताते हुए शिखर-वार्ता के बाद ट्वीट भी किया। लेकिन यह सब बेहद सादगी से हुआ। इसमें पारंपरिक शिखर-वार्ता की रौनक गायब थी। न तो कोई भोज था, न फोटो-अप, न ही डिनर डिप्लोमेसी। एक स्क्रीन थी, और इस डिजिटल दीवार के आर-पार दोनों प्रधानमंत्री थे। उनमें बातचीत हुई और कई समझौते भी हुए। हालांकि, द्विपक्षीय रिश्तों की गरमी डिजिटल बंटवारे के आर-पार महसूस की गई।
कोरोना-काल के पूर्व की परंपरागत शिखर-वार्ताओं को याद कीजिए। पहले किसी शिखर-वार्ता का मतलब होता था- शासनाध्यक्ष के आने की तैयारियां, कई भोज, कई दौर की बातचीत, फिर कुछ समझौते, साझा बयान और फोटो-अप। ऐसे में, कहा जा सकता है कि असल की जगह अब वर्चुअल ले रहा है और इसकी अहमियत अब बढ़ती ही जाएगी। हां, इसमें आमने-सामने मिलने की गर्मजोशी और ‘पर्सनल टच’ की कमी जरूर महसूस होगी, लेकिन कोरोना-काल की यही असलियत है और इसमें भविष्य के संकेत भी हैं। वर्चुअल डिप्लोमेसी अब एक ऐसी सच्चाई है, जो आगे भी बनी रहेगी। ऑस्ट्रेलिया के हाई कमिश्नर बैरी ओ फैरेल ने इसी दौरान अपना कार्यभार संभाला और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को डिजिटल माध्यम से ही अपना परिचय-पत्र पेश किया। इस मौके पर उन्होंने कहा भी कि कोरोना ने जीवन के हर क्षेत्र में बाधाएं खड़ी की हैं, कूटनीति इसका अपवाद नहीं।
दरअसल, कोरोना-काल की कूटनीति में द्विपक्षीय संवादों, शिखर-सम्मेलनों या किसी भी प्रकार के आदान-प्रदान के नियम बदल चुके हैं। असल की जगह वर्चुअल ने ले ली है। राजनयिकों ने एक-दूसरे के साथ संपर्क व सहयोग बनाए रखने का नया तरीका अपना लिया है, जिसमें शून्य शारीरिक नजदीकी अपनाई जा रही है। नाराजगी जाहिर करने का तरीका भी वर्चुअल हो गया है। अप्रैल महीने में भारत-पाक सीमा पर मारे गए नागरिकों को लेकर नई दिल्ली ने नाराजगी जताते हुए इस्लामाबाद को वर्चुअल आपत्ति-पत्र भेजा। फोन कॉल और फिर ई-मेल के जरिए आपत्ति दर्ज की गई।
वैश्विक कूटनीति इस दौरान कैसे डिजिटल माध्यम से काम कर रही है, इसकी एक दिलचस्प मिसाल है संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन की सेवानिवृत्ति। वह रिटायर हुए और पद से उनकी विदाई एक आभासी नमस्ते के साथ हुई। इसी तरह, पिछले माह लगभग 20 सम्मेलन आभासी माध्यम से हुए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की महासभा भी ऑनलाइन हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 मई को नाम शिखर-वार्ता में ऑनलाइन ही शिरकत की। कोरोना के शुरुआती दौर में ही प्रधानमंत्री ने सार्क देशों के नेताओं के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए एक अहम बैठक की थी। यह सब सिर्फ भारत में नहीं हो रहा, सभी देश तकनीक के जरिए अब अपनी कूटनीति कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि वर्चुअल माध्यम से कूटनीति पहले नहीं हुई। मोहित मुसद्दी और संजय पुलिपका ने देल्ही पॉलिसी ग्रुप के लिए लिखे अपने शोधपत्र में लिखा है कि कूटनीति के लिए वर्चुअल माध्यम अपनाना असामान्य नहीं है। जब से टेलीफोन ने कूटनीति में अपनी जगह बनाई है, वह वहां जम गया। उसकी भरपाई किसी अन्य चीज से नहीं की जा सकी। 1963 में शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हॉटलाइन की शुरुआत हुई थी, ताकि दोनों शीर्ष नेताओं के बीच सीधी बातचीत हो सके। देखते-देखते दूसरे देश भी कूटनीति के इस वैकल्पिक रास्ते का इस्तेमाल करने लगे। शीत युद्ध के बाद टेलीफोन द्वारा कूटनीति में गति आ गई। अब तो संयुक्त राष्ट्र भी वर्चुअल महासभा की संभावना पर गौर कर रहा है, जिसमें रिकॉर्ड किए गए भाषण चलाए जाएं।
डिजिटल माध्यम से कूटनीति के कई फायदे हैं। यह काफी किफायती है। शिखर सम्मलेन हो या फिर बहुपक्षीय बैठक, इनसे जुड़ी यात्राओं और आयोजनों का खर्च वर्चुअल माध्यम में काफी कम हो जाता है। यह पर्यावरण संरक्षण की नजर से भी बेहतर है, क्योंकि ऐसे में हवाई यात्राओं की संख्या में काफी कमी आएगी, जिसका सीधा असर ग्लोबल वार्मिंग पर पड़ता है। इन सभी फायदों को देखते हुए लगता है कि संबंधों के तार जोड़ने के लिए डिजिटल माध्यम ही भविष्य है।
लेकिन वर्चुअल डिप्लोमेसी पारंपरिक कूटनीति की जगह पूरी तरह से ले लेगी, यह मुश्किल है। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच तो यह कामयाब हो सकती है, जहां दोनों पक्षों में कोई टकराव या मतभेद की स्थिति नहीं, लेकिन जहां मुश्किल परिस्थितियों से जूझना पड़ता है, वहां बंद दरवाजों के पीछे की कूटनीति और व्यक्तिगत संबंधों की अपनी अहमियत है। मिसाल के तौर पर, डोका ला टकराव के बाद भारत और चीन के रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने में प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग की वुहान में हुई पारंपरिक-वार्ता की अहम भूमिका थी। इसमें नदी किनारे की सैर, पारंपरिक भोज जैसी चीजों की अपनी जगह है, जो दोनों पक्षों के बीच एक आत्मीयता को जन्म देती है।
याद कीजिए, इंदिरा गांधी ने अपने दौर में अलफांसो आम की कूटनीति की थी, प्रधानमंत्री मोदी ने तत्कालीन पाकिस्तानी वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ के साथ शॉल डिप्लोमेसी की थी। रूस तो वोदका डिप्लोमेसी के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष के बीच भी समोसा और खिचड़ी की बात हुई, पर वह सिर्फ बात थी। जब उनकी आमने-सामने की मुलाकातें होंगी, तो बात आगे बढ़ेगी। संबंधों की जटिलताओं को सुलझाने के लिए या रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने के लिए पुराने पारंपरिक तरीके जरूरी बने रहेंगे। हां, सामान्य बातचीत और कूटनीति के लिए वर्चुअल डिप्लोमेसी ही आगे का रास्ता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)नगमा सहर, टीवी पत्रकार व सीनियर फेलो, ओआरएफ

 

बेमेतरा । शौर्यपथ । संत आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित युवा सेवा संघ जिला बेमेतरा ने विश्व पर्यावरण दिवस एवं वट पूर्णिमा व कबीरजी जयंती के उपलक्ष्य पर विभिन्न जगहों में किया वृक्षारोपण । युवा सेवा संघ जिला बेमेतरा के अध्यक्ष सोनू साहू ने बताया पीपल का वृक्ष दमानाशक, हृदयपोषक, ऋण-आयनों का खजाना, रोगनाशक, आह्लाद व मानसिक प्रसन्नता का खजाना तथा रोगप्रतिकारक शक्ति बढानेवाला है । बुद्धू बालकों तथा हताश-निराश लोगों को भी पीपल के स्पर्श एवं उसकी छाया में बैठने से अमिट स्वास्थ्य-लाभ व पुण्य-लाभ होता है । पीपल की जितनी महिमा गायें, कम है । पर्यावरण की शुद्धि के लिए जनता-जनार्दन एवं सरकार को बबूल, नीलगिरी (यूकेलिप्टस) आदि जीवनशक्ति का ह्रास करनेवाले वृक्ष सडकों एवं अन्य स्थानों से हटाने चाहिए और पीपल, आँवला, तुलसी, वटवृक्ष व नीम के वृक्ष दिल खोलके लगाने चाहिए । इससे अरबों रुपयों की दवाइयों का खर्च बच जायेगा । ये वृक्ष शुद्ध वायु के द्वारा प्राणिमात्र को एक प्रकार का उत्तम भोजन प्रदान करते हैं । पूज्य बापूजी कहते हैं कि ये वृक्ष लगाने से आपके द्वारा प्राणिमात्र की बडी सेवा होगी । यह लेख पढने के बाद सरकार में अमलदारों व अधिकारियों को सूचित करना भी एक सेवा होगी । खुद वृक्ष लगाना और दूसरों को प्रेरित करना भी एक सेवा होगी । जिसमे प्रदीप साहू, शिद्धान्त चौहान,कुश कश्यप, हेमलाल साहू, महेश, रेवाराम,राधेश्याम,सुमन साहू,अनूप, खेमलाल ,प्रह्लाद साहू,आदि पदाधिकारी उपस्थित रहे।*

दुर्ग । शौर्यपथ । 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस है इस दिन आम जनता पेड़ पौधे लगा कर पर्यावरण की रक्षा की बात करती है कोई इसे लंबे समय तक निभाता है कोई कुछ दिनों के लिए किन्तु पर्यावरण दिवस के दिन दुर्ग पुलिस द्वारा ssp यादव के मार्गदर्शन में एक नई पहल की शुरुवात की है । दुर्ग पुलिस द्वारा बेजुबान पक्षियों के लिए गर्मी के मौसम में दाना पानी की व्यवस्था की । एक विशेष प्रकार के डब्बे में दाना पानी को रखकर थाना परिसरों में इसे लगाया जाएगा गर्मी के मौसम में बेजुबान पक्षियों के लिए दाना पानी की व्यवस्था । पहल का शुभारंभ SSP अजय यादव द्वारा पुलिस कंट्रोल रूम सेक्टर 6 से किया गया । इस मौके पर asp रोहित झा सहित वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मौजूद रहे ।

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