साभार - श्री शिवराज सिंह चौहान
शौर्यपथ लेख / भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के उदय को विशेषाधिकार के पारंपरिक लेंस से नहीं समझा जा सकता। राजनीतिक वंशों में पले-बढ़े अनेक नेताओं के विपरीत, मोदी और उनकी नेतृत्व शैली ज़मीन से उभरी है, जिसने उनके संघर्ष, वर्षों से ज़मीनी स्तर पर किए गए कार्यों और सरकार के विभिन्न स्तरों पर प्राप्त व्यवहारिक अनुभवों से आकार लिया है। उनका करियर मात्र एक व्यक्ति के उत्थान को ही प्रदर्शित नहीं करता, बल्कि यह भारत में अभिजात वर्ग द्वारा संचालित राजनीति की नींव के लिए एक चुनौती भी है।
वडनगर के एक साधारण परिवार में जन्मे मोदी का बचपन ज़िम्मेदारी और सादगी से भरपूर रहा। बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए चैरिटी स्टॉल लगाने से लेकर स्कूली छात्र के रूप में जातिगत भेदभाव पर आधारित नाटक लिखने तक, उन्होंने अल्पायु में ही संगठनात्मक कौशल और सामाजिक सरोकार का अद्भुत मिश्रण प्रदर्शित किया। उन्होंने वंचित सहपाठियों के लिए पुरानी किताबें और वर्दियाँ इकट्ठा करने के अभियान भी चलाए, जो इस बात का प्रारंभिक संकेत था कि वह नेतृत्व को किसी विशेषाधिकार के रूप में नहीं, बल्कि सेवा के रूप में देखते हैं। इन छोटे-छोटे प्रयासों ने उनके द्वारा सार्वजनिक जीवन में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण का पूर्वाभास करा दिया।
उनकी मूलभूत प्रवृत्तियाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में और भी प्रखर हुईं, जहाँ साधारण कार्यकर्ताओं को ग्रामीणों से घुलने-मिलने, उनके जैसा जीवन व्यतीत करने और अपने आचरण के जरिए उनका विश्वास अर्जित करने का प्रशिक्षण दिया जाता था। एक युवा प्रचारक के तौर पर मोदी ने बिल्कुल वैसा ही किया। अक्सर बस या स्कूटर से गुजरात भर में यात्रा करते हुए, और भोजन व आश्रय के लिए ग्रामीणों पर निर्भर रहते हुए, उन्होंने साझा कठिनाइयों और संघर्षों के माध्यम से सभी वर्गों का विश्वास अर्जित किया। इस अनुशासन ने उन्हें उन लोगों के रोज़मर्रा के सरोकारों से जुड़े रहने में मदद की, जिनकी वे सेवा करना चाहते थे, और इसी ने उन्हें संकटकाल में संगठित, बड़े पैमाने पर कदम उठाने की आवश्यकता पड़ने पर प्रभावी ढंग से नेतृत्व करने के लिए भी तैयार किया।
ऐसा ही एक संकट 1979 में मच्छू बांध के टूटने से आया था, जिसमें हज़ारों लोग मारे गए थे। 29 वर्षीय मोदी ने तुरंत स्वयंसेवकों को पालियों में संगठित किया, राहत सामग्री का प्रबंध किया, शवों को निकाला और परिवारों को सांत्वना दी। कुछ साल बाद, गुजरात में सूखे के दौरान, उन्होंने सुखड़ी अभियान का नेतृत्व किया, जो पूरे राज्य में फैल गया और लगभग 25 करोड़ रुपये मूल्य का भोजन वितरित किया गया। दोनों ही आपदाओं में, उन्होंने बिल्कुल आरंभ से ही बड़े पैमाने पर राहत प्रयास शुरू किए, जिससे उनके उद्देश्य की स्पष्टता, उनके सैन्य-शैली के संगठन और उनका इस आग्रह का परिचय मिला कि नेतृत्व का अर्थ केवल प्रतीकात्मकता नहीं, बल्कि सेवा है।
इन शुरुआती घटनाओं ने जहाँ एक ओर लोगों को संगठित करने की उनकी क्षमता को परखा, वहीं आपातकाल ने दमन के दौर में उनके साहस की परीक्षा ली। मात्र 25 वर्ष की आयु में, एक सिख के वेश में, उन्होंने पुलिस निगरानी से बचने की कोशिश कर रहे कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच संवाद कायम रखा। इस ज़मीनी नेटवर्क ने क्रूर शासन के विरुद्ध प्रतिरोध को जीवित रखा, जिससे उन्हें एक कुशल संगठनकर्ता के रूप में ख्याति मिली।
इन्हीं कौशलों का उपयोग जल्द ही चुनावी राजनीति में भी किया गया। भाजपा - गुजरात के संगठन मंत्री के रूप में, उन्होंने पार्टी का विस्तार नए समुदायों तक किया, जिनमें राजनीतिक विमर्श में हाशिए पर पड़े लोग भी शामिल थे। उन्होंने विविध पृष्ठभूमियों के नेताओं को तैयार किया, ज़मीनी स्तर पर समर्थन जुटाया और पूरे गुजरात में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा जैसे बड़े आयोजनों की योजना बनाने में मदद की। बाद में, विभिन्न राज्यों के प्रभारी के रूप में उन्होंने बूथ स्तर तक मज़बूत पार्टी तंत्रों का निर्माण किया।
साल 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होने पर उन्होंने ये सबक शासन में लागू किए। उदाहरण के लिए, पदभार ग्रहण करने के चंद घंटे बाद ही उन्होंने साबरमती में नर्मदा का जल लाने के विषय में एक बैठक बुलाकर इस बात का संकेत दिया कि निर्णायक कार्रवाई उनके प्रशासन को परिभाषित करेगी। उनका दृष्टिकोण शासन को एक जन आंदोलन बनाना था, जहाँ प्रवेशोत्सव ने स्कूलों में नामांकन को प्रोत्साहित किया, कन्या केलवणी ने बालिकाओं की शिक्षा का समर्थन किया, गरीब कल्याण मेलों ने कल्याण को नागरिकों तक पहुँचाया, और कृषि रथ ने कृषि सहायता को किसानों के खेतों तक पहुँचाया। नौकरशाहों को दफ्तरों से निकालकर कस्बों और गाँवों तक भेजा गया। उनका मानना है कि शासन लोगों तक वहाँ पहुँचे जहाँ वे रहते हैं, न कि केवल मीटिंग कक्षों तक सीमित रहे।
उनके प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद गुजरात में किए गए प्रयोग राष्ट्रीय आदर्श बन गए। स्वच्छता अभियानों के उनके अनुभव ने स्वच्छ भारत मिशन का रूप लिया, जहाँ उन्होंने प्रतीकात्मकता को सामूहिक कार्रवाई में बदलने के लिए स्वयं झाड़ू उठाई। डिजिटल इंडिया, जन-धन योजना और अन्य पहल शीर्ष से शुरू किए गए कार्यक्रम नहीं थे, बल्कि जमीनी स्तर पर बिताए उनके वर्षों से प्राप्त सीखों पर आधारित जन-आंदोलन थे। इन्होंने जन-भागीदारी के उनके दर्शन को मूर्त रूप दिया, जहाँ शासन तभी कारगर होता है, जब नागरिक निष्क्रिय प्राप्तकर्ता न बने रहकर, स्वयं भागीदार बनें। मोदी जैसे नेता और जनता के बीच दशकों से विकसित इसी विश्वास ने आज के भारत में नीति को साझेदारी में बदल दिया है।
दशकों से, मोदी बैठकों में होने वाली बहसों से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर जीवंत संपर्क की बदौलत लोगों की ज़रूरतों को समझने और उन्हें पूरा करने के तरीकों को जानने की दुर्लभ सहज प्रवृत्ति प्रदर्शित करते आए हैं। यह प्रवृत्ति कठोर प्रशासनिक अनुभव के साथ मिलकर उनकी राजनीति को परिभाषित करती है।
मूलभूत रूप से, उनके जीवन और नेतृत्व ने भारतीय राजनीति के केवल अभिजात वर्ग से संबद्ध होने की धारणा को नए सिरे से परिभाषित किया है। वह योग्यता और परिश्रम का प्रतीक बन चुके हैं तथा वह शासन को जनसाधारण के और करीब ले आए हैं। उनकी राजनीतिक शक्ति सत्ता को जनता से जोड़ने में निहित है। ऐसा करके, उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नया रूप दिया है, जो आम नागरिक के संघर्षों और भावनाओं पर आधारित है।