August 02, 2025
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शौर्य की बाते ( सम्पादकीय )

शौर्य की बाते ( सम्पादकीय ) (178)

ओपिनियन /शौर्यपथ /छत्तीसगढ़ में बैशाख शुक्ल की तृतीया को अक्षय तृतीया (अक्ती) का पर्व मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 14 मई को पड़ रहा है। इस पर्व पर मिट्टी के घड़े अथवा सुराही दान में देने की प्रथा प्रचलित है। इस पर्व पर मटके, सुराही दान देने का उद्देश्य यहीं है कि दीन हीन निर्धनजनों का परिवार ग्रीष्मकाल में सहजता से शीतल जल से प्यास बुझा सके। इस पर्व पर दो चार सुराही पक्षियों के बसेरा बनाने के लिये पेड़-पौधों, घरों की मुंडेर पर लटकाने की एक नई परंपरा छत्तीसगढ़ राज्य पाॅवर कंपनी के अतिरिक्त महाप्रबंधक श्री विजय मिश्रा ‘‘अमित’’ ने की है। उनका कहना है कि गर्मी बीत जाने के बाद प्रायः सुराही मटके को अनुपयोगी मानकर फेक दिया जाता है। इन्हे भी सुरक्षित स्थान पर लटका देने से यह भी पक्षियों का बसेरा बन सकते है।

सृष्टि की रचना के साथ ही मनुष्य का अटूट रिश्ता पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ जुड़ा हुआ है। मानव समुदाय की जिंदगी को खुशनुमा बनाने में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिये विद्वानों का कहना है कि ‘‘परिंदे जिनके करीब होते हैं, वे बड़े खुशनसीब होते हैं’’। मानव मित्र ये पक्षी फसलों के कीड़ों को खाकर न केवल फसलों की रक्षा करते हैं। फूलों के परागकण को एक फूल से दूसरे फूल में पहुंचाने का भी कार्य करते हैं। इससे अनभिज्ञ अनेक लोग खुबसूरत पक्षियों को पिंजरे में कैद करके रखते है।

मनुष्य के तन-मन-धन सब को संवारने में पक्षी परिवार का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसीलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि पक्षियों को पिंजरे में कैद करके रखने के बजाय आंगन में दाना पानी रखना आरंभ करें। साथ ही साथ घर आंगन आस-पास उगे वृक्षों में सुराही को बांधकर लटका दे। ऐसे लटके हुये सुराही में गौरेया, गिलहरी, उल्लू, पहाड़ी मैना, जैसे अनेक प्राणी बड़ी सहजता से अपना बसेरा बना लेते हैं। ऐसे में बिना कैद किये हुये भी आसपास चहकते हुए पक्षी आपके परिवार के सदस्य बन जाते हैं। श्री विजय मिश्रा अब तक सैकड़ों सुराही, मटके से पक्षियों का बसेरा बनाकर पेड़ों पर लटकायें हैं साथ ही सुराही बांटने, घोसला बनाने के तरीके भी वे रूचि लेकर सिखाते हैं।

उनका कहना है कि पक्षियों से दूर होते इंसान की जिंदगी आज नीरस हो चली है। कोयल, कौआ, फाक्ता, बुलबुल, कबूतर जैसे पक्षियों से बढ़ती दूरी मानव समुदाय के लिए अनेक अर्थों में हानिकारक सिद्ध हो रही है। लुप्त होते पक्षियों को बचाने का उत्तम उपाय यही है कि उन्हें पिजरें में कैद करना तत्काल बंद कर दें और अपने करीब रखने के लिए घर आंगन के पेड़ पौधे, मुंडेर पर सुराही, मटकी बांधने के साथ ही हर सुबह दाना-पानी देना आंरभ करें। इससे बारहों महीना चैबीस घण्टे पक्षियों के कलरव से आपका मन आनंदित होगा और पक्षियाॅ भी आपको आशीष देते हुये कहेंगे- समाज उसे ही पूजता है जो अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी जीता है।
लेखक विजय मिश्रा
अति.महाप्रबंधक(जनसम्पर्क)
छ.रा.पाॅवर होल्डिंग कंपनी रायपुर
(छ.ग.) 

शौर्यपथ लेख /  3 अप्रैल 2021 एक ऐसा दिन जब नक्सलियों के कायराना हमले में हमारे 22 जांबाज भाई शहीद हो गए। इस दुखद घटना से मेरे जेहन में अपने दंतेवाड़ा और सुकमा में बिताए 4 वर्षों की स्मृतियां उभरने लगीं। यहां घटित हर नक्सली घटना के बाद विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों में यही चर्चा होती है कि नक्सलवाद ग्रामीणों के समर्थन पर टिका है और इसी के बूते फलफूल रहा है। मुझे तब लगता है कि सबसे बड़ा दुष्प्रचार ग्रामीणों के लिए यही होगा कि उन्हें नक्सलियों से जोड़ा जाए और उन्हें नक्सलियों का हितैषी माना जाए। यह बात कॉरपोरेट ऑफिस में बैठकर या किसी ऐसी बड़ी घटना होने के बाद एक या 2 दिन घटनास्थल जाकर नक्सल प्रभावित क्षेत्र के गांव में भ्रमण कर नहीं जानी जा सकती, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मैंने अपने कार्यकाल के 4 साल 2015 से 19 नक्सल प्रभावित क्षेत्र दंतेवाड़ा एवं सुकमा में बिताए हैं, जिसमें 3 साल मैंने एसडीओपी दोरनापाल के रूप में जो कि सुकमा जिले में स्थित है कार्य किया है। इस दौरान हमने वहां ग्रामीणों को जोडऩे वाला एक अभियान तेदमुन्ता बस्तर चलाया जिसके तहत हम नक्सल गढ़ कहे जाने वाले सुकमा के अति नक्सल प्रभावित गांव में जाकर ग्रामीणों के साथ बैठक कर उन से निरंतर संवाद स्थापित कर वहां की वास्तविक स्थिति को समझा है। इसलिए मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई भी ग्रामीण नक्सलियों का साथ नहीं देना चाहता, क्योंकि वह चाहते ही नहीं कि उनके क्षेत्र में नक्सलवाद रहे। ऐसा कहने के पीछे तार्किक कारण यह है कि तेदमुंता बस्तर अभियान के दौरान जब हम अनेक गांव में जाकर बैठक लेते थे। तब हम वहां उपस्थित ग्रामीणों को पूछते थे कि क्या आप नक्सलवाद का खात्मा चाहते हैं तो वह बोलते थे हां।
फिर हम उन्हें बताते थे कि 3 तरीके से नक्सलवाद को खत्म किया जा सकता है।
पहला शिक्षा जिसमें हम बताते थे कि शिक्षा के माध्यम से नक्सलवाद खत्म किया जा सकता हैं परंतु यह एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें आने वाली पीढ़ी नक्सलवाद के चंगुल से मुक्त हो जाएगी। दूसरा एकता इसके माध्यम से प्रत्येक गांव नक्सलियों के खिलाफ खड़ा होकर उनसे प्रश्न करेगा कि 40 वर्षों में नक्सलियों ने उन्हें क्या दिया है? और इस प्रकार नक्सलियों का विरोध एक-एक करके सभी गांव वाले करना शुरू करेंगे और इस एकजुटता और एकता के माध्यम से नक्सलवाद खत्म किया जा सकता है।
तीसरा तरीका 1857 की क्रांति जैसा कुछ जिसमें हम कोई दिन निर्धारित करेंगे और इस दिन सभी गांव वाले एक साथ अपने अपने घरों एवम गांव से निकलेंगे, और बड़ी संख्या में उस क्षेत्र की ओर जाएंगे जहां पर नक्सली रहते हैं, और पूरी एक श्रृंखला बनाते हुए हम गांव, जंगल, नदी, पहाड़ पार करते उनको खोजते हुए आगे बढ़ते जाएंगे। हमारे हाथ में जो भी औजार हथियार, डंडा, हँसिया, धनुष आये उसे लेकर चलेंगे, और जो भी नक्सली मिले उसे बोलें या तो आत्मसमर्पण कर दे नहीं तो वह मारा जाएगा। इस प्रकार हम पूरे नक्सली खत्म कर देंगे। तब उनके बीच से कोई पूछता था इसमें पूरे गांव वाले जाएंगे ना ? क्योंकि उन्हें डर था कि कोई एक गांव वाले भी यदि नही जाएंगे तो उनको खतरा हो जाएगा।


तीसरे तरीक़े को सुनने के बाद एक अजीब सी खुशी उनके चेहरे में दिखाई देती थी। जैसे वह यह बोल रहे हो कि काश ऐसा हो पाता जब मैं यहां पूछता कि इन तीनों ही तरीकों में से कौन सा तरीका आप नक्सलवाद के खात्मे के लिए चुनेंगे? तो वह हंसते हुए तीसरे तरीके की ओर इशारा करते, उनके इस संकेतों से यह स्पष्ट था कि वो कितने आतुर हैं कि नक्सलवाद उनके क्षेत्र से समाप्त हो जाए। क्योंकि उन्हें भी पता है कि नक्सलियों ने उन्हें इन 40 सालों में कुछ नहीं दिया ना सड़क ना बिजली ना पानी ना स्वास्थ्य सुविधाएं अगर नक्सली जनता के लिए लड़ रहे हैं तो इन 40 वर्षों में नक्सली जनता को मूलभूत सुविधाए तो दे ही सकते थे। अपितु सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाओं से भी उन्हें नक्सली मरहूम कर रहे है। नक्सलवाद की जमीनी हकीकत जानने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद आया कैसे ? छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद 1980 के आसपास तेलंगाना क्षेत्र से आए 7 समूहों जो की 7 - 7 सदस्यों के रूप में आए थे, वहां से पनपा। इन लोगों ने कैसे छत्तीसगढ़ को पूरे भारत का नक्सलवाद का केंद्र बना दिया इसके लिए यहां की भौगोलिक सांस्कृतिक एवं पिछड़ेपन की परिस्थिति प्रमुख रही। मेरे विचार से इस क्षेत्र में नक्सल समस्या इसलिए नहीं है क्योंकि ये क्षेत्र विकसित नहीं है या यहाँ विकास नहीं हुआ है 7 बस्तर क्षेत्र के आदिवासी तो पकृति के साथ जीते है , एवं अपनी विकसित संस्कृति के साथ वे खुश थे। उन्हें शहरी मॉल संस्कृति या औद्योगीकरण की चाह नहीं थी , ना ही वे संचयी प्रवित्ति के लोग है वे तो सुबह जंगल जाकर वनोपज संग्रह कर शाम उसे उपभोग करना जैसी अपनी सिमित आवश्कताओं से खुश रहते थे 7 जब नक्सल लीडर इन क्षेत्र में आये तो उन्हें यहाँ के निवासियो का भोलापन तथा निस्वार्थ छबि तथा यहाँ की भौगोलिक स्थिति उपयुक्त लगी , फिर यहाँ के भोले भाले आदिवासियों को बहकाने का उन्होंने खेल खेला 7 इन लीडरो ने उन आदिवासियों को यह विशवास दिला दिया की सरकार या प्रशासन उनके जल , जंगल, जमीन पर अधिकार कर लेगी, और उन्हें यहाँ से बेदखल कर देगी। उन्होंने इस क्षेत्र में चलने एवम् खुलने वाले खनिज खदानों एवम् उनसे होने वाले विस्थापितों का उदाहरण प्रस्तुत किया। साथ ही व्यापारियो द्वारा किये जा रहे शोषण आदि का भी हवाला दिया , और उन्हें धीरे धीरे अपने साथ मिलाना शुरू किया 7 फिर इन खनिज खदानों के कारण होने वाले जमीन अधिग्रहण एवम् विस्थापन का विरोध शुरू हुआ , इन सब पर नियत्रण करने के लिए अधिक से अधिक पुलिस बल को यहाँ स्थापित किया गया 7 इस तरह नक्सलियो को यहाँ अपना विस्तार करने के लिए एक उपयुक्त नींव मिल गयी। इस प्रकार नक्सलियों के द्वारा इस झूठ के दम पर अपना प्रचार करना शुरू कर दिया गया। परंतु ऐसा नहीं था कि उस समय लोगों को यह समझ नहीं आ रहा था कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह एहसास हो चुका था कि नक्सली झूठे है और जल, जंगल, जमीन की बात कर वे लोगों को बरगला रहे हैं। ऐसे लोगों ने जब उनका विरोध करना शुरू किया तो नक्सलियों ने अपना असली चेहरा दिखाना शुरू किया। नक्सलियों द्वारा ऐसी पहली राजनीतिक हत्या 1986 में माड़वी जोगा नामक ग्राम पटेल की गई, क्योंकि वह नक्सलियों की हकीकत जान कर उनके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। उसके बाद लगातार नक्सलियों द्वारा हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक अनवरत जारी है। अब मैं फिर से उसी पुराने प्रश्न पर आता हूं क्या ग्रामीण नक्सलियों का समर्थन करते हैं ? इसके जवाब में मैं यहां बताना चाहूंगा कि तेदमुन्ता बस्तर अभियान के दौरान जब मैं विभिन्न गांव में बैठकें लेता तो उस संवाद में हमारा उनसे एक प्रश्न होता था कि इस गांव से कितने ग्रामीणों को की हत्या नक्सलियों द्वारा अभी तक की गई है ? आप विश्वास नहीं करेंगे हमने ऐसा कोई भी गांव नहीं पाया जहां नक्सलियों द्वारा ग्रामीणों की हत्या नहीं की गई हो और कोई कोई गांव उदाहरण दोरनापाल जगरगुंडा रोड से 5 किलोमीटर अंदर दूरी पर स्थित पालामडग़ू गांव में नक्सलियों ने विभिन्न समय पर 17 ग्रामीणों को मौत के घाट उतारा था। बैठकों के दौरान हमने पाया कि औसतन 4 से 5 ग्रामीणों की हत्या सभी गांव में नक्सलियों द्वारा की गई थी। उनमें से कुछ गांव का नाम मैं बताना चाहूंगा गोलगुंडा, पोलमपल्ली, पालामडग़ु, अर्र्णमपल्ली, जग्गावरम, डब्बाकोन्टा, रामाराम, पिडमेल, कांकेरलंका, पुसवाड़ा, तिमिलवाड़ा, बुर्कापाल, चिंतागुफा गोडेलगुड़ा, मेड़वाही, इत्तगुड़ा, पेंटा, मिसमा, पेदाकुर्ति, गगनपल्ली, एर्राबोर...... यूं तो गांव के नामों की सूची काफी लंबी है, परंतु इन उदाहरणों से मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि, आप इन गांव में हुए नक्सली बर्बरता और हत्या की जानकारी ले सकते हैं।
अब मैं आपको यह पूछना चाहूंगा कि देश के बाहुबली गुंडे इनके खिलाफ कितने लोगों ने आवाज बुलंद करने की हिम्मत की है? जिन्होंने भी हिम्मत कि ऐसे गुंडों बदमाशों ने उनकी हत्या कर दिया या करवा दी तो नक्सली भी इन गुंडे बदमाशों से कहां अलग है? कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है, तो पूरे गांव वालों को बुलाकर जनअदालत लगाकर निर्ममता पूर्वक सबके सामने में उसकी हत्या कर दी जाती है। और उस पर झूठे आरोप लगाए जाते हैं कि वह पुलिस मुखबिर है, ऐसे झूठे आरोप लगाकर हत्या करना उनकी एक रणनीति का हिस्सा है, क्योंकि वे आतंक का माहौल बनाकर लोगों को अपने विरुद्ध ना खड़े हो इसके लिए हत्या का उदाहरण प्रस्तुत करते है। ग्राम पलामडग़ू में जब मैं एक बार बैठक लेने गया तो वहां पर ग्रामीणों से मैंने पूछा कि आप नक्सलियों का साथ क्यों देते हैं? तो वहाँ उपस्थित ग्रामीणों में से बैठा हुआ एक युवक खड़ा हुआ और बहुत हिम्मत करते हुए उसने बोला अगर हम उनका साथ नहीं देंगे सर तो वह ( नक्सली ) हमें मार देंगे। बाद में मुझे पता चला कि पूर्व में उस युवक के पिता की हत्या भी नक्सलियों के द्वारा कर दी गई थी।
यह लेख मैंने वहाँ रहते हुए अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। और कोशिश की है कि वहाँ की सच्चाई आप लोगों तक पहुँचाऊ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन जरूर आएगा जब स्थानीय आदिवासी नक्सलवाद से त्रस्त होकर तीसरा तरीका अपनाते हुए अपने घरों से गांव से निकलेंगे, और उस दिन पूरे आदिवासी नक्सलवाद का खात्मा सुनिश्चित करेंगे। और वह दिन कोई सरकार द्वारा प्रायोजित या राजनीतिक आंदोलन (सलवा जुडूम जैसा) से प्रभावित ना होकर उनका स्वत:स्फूर्त आंदोलन होगा, जिसमें नक्सलवाद का खात्मा निश्चित ही होगा।

लेख - विवेक शुक्ला
सीएसपी , दुर्ग शहर ( छत्तीसगढ़ पुलिस )

शौर्यपथ विशेष / जो सुबह से उठकर मशीनों से भी ज्यादा गति से काम करे व सबका अच्छे बुरे का ख्याल रखे और खुद अपने बच्चों को गर्मा-गरम खाना बनाकर खिलाये और सबके खाने के बाद खुद ठंडा खाना खाएं...
ये वही मां है...ना?
अपने जान को खतरे में डालकर अपने बच्चे को जन्म देती है और पति व बच्चे को सामाज व परिवारों में एक नया पहचान एक नया नाम देती है...
ये वही माँ है...ना?
खुद की तबियत खराब होने के बाद भी अपने बच्चों के तबियत की चिंता करे व बच्चों की लाख गलतियां होने पर भी वह अपने बच्चों के लिए दुनिया से तो क्या भगवान से भी लड़ ले...
ये वही मां है...ना?
बुरे समय मे जब सब साथ छोड़ दे और वो अपने बच्चों का साथ मरते दम तक ना छोड़े व जो बच्चों की जीवन की हर एक खुशी में उनके पास हो तो उन्हें किसी दौलत की जरूरत ना हो...
ये वही मां है...ना?
उनके कांधों पर जब सर रख कर सोते है और रात भर जन्नत की सैर करते है व जिनके वजह से बच्चे इस दुनिया में सामाज में परिवार में जो जगह बनाये उनका हकदार कोई और नही¸ बल्कि वो मां है...
ये वही मां है...ना?

अतिश (दक्ष)
संस्कारधानी-राजनंदगांव (छ.ग.)

मुंगेली / शौर्यपथ / छत्तीसगढ़ प्रदेश को अपने आगोश में लेकर तांडव कराने वाले कोरोना 19 वायरस संक्रमण पर हम सब को सुरक्षा मुहैया कराने दिन रात एक कर लगातार कोरोना की दूसरी पारी को संभालने वाले कोरोना फाईटर्स के रूप में हमारे सफाई कर्मचारी तथा डॉक्टर एवं पुलिस के जांबाज नवजवानों को आवो हमारे सब मिलकर करें सम्मान और उनके हौसला को बढ़ाए जिससे हमारा गांव ही नहीं वरन पुरा देश से कोरोना संक्रमण पर विजय की पताका फहरा सके।
स्वच्छ भारत की मिसाल गढता - सफाई कर्मचारी
कोरोना संक्रमण काल से लेकर के लगातार सफाई कर्मचारी अपनी जान लगाकर के शहर के कोने-कोने को स्वच्छ वातावरण देने के लिए सफाई करते नजर आते हैं आवो फिर एक मिलकर करे सबका सम्मान वही सरकार से एक अपील सफाई कर्मचारीयों के लिए मेरी ओर से घर गृहस्ती चलाने की दिक्कतों का सामना ना करना पड़े सफाई कर्मचारियों को हमने अधिकतर देखा हे कि सबसे ज्यादा सफाई कर्मचारियों को ही किसी ना किसी सरकारी दफ्तरों के बाहर धरना प्रदर्शन करते देखने को मिलता है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए सरकार सफाई कर्मचारीयों को वेतन सही समय पर दे जो हम सब को एक स्वच्छ वातावरण मुहैया कराने का कार्य करने पर लगे हैं हम गर्व करते हैं हमारे सफाई कर्मचारियों पर जो देश की गन्दगी को साफ कर हम सब को स्वच्छ वातावरण प्रदान करते हैं।
निराशा के बीच में आशा की किरण जगा देते हैं... डॉक्टर
जीवन और मरण का जिम्मा हम सब ईश्वर के बाद किसी को दूसरा स्थान डॉक्टरों को देते हैं माता पिता के बाद हम सब के जीवन की देखभाल डॉक्टर के हाथों होता है जो निराशा को हमें आशा की उम्मीद देते हैं और पुनः एक बार जीवन की आशा मिल जाती है कोरोना संक्रमण में पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं दिन रात एक कर के लोगों की जान बचाने के लिए लगे हुए हैं डॉक्टर एवं उनकी टीम को आवो मिलकर उन्हें सम्मान दे और डॉक्टर व उनकी टीम की हौसला बढ़ाऐ
सेवा ही धर्म को चरित्रार्थ करता छत्तीसगढ़ ...पुलिस
संकट की घड़ी में बिना छुट्टी लिए कड़ी धूप में आसमान में नीचे खड़े होकर हम सब को कोरोना 19 संक्रमण की बचाव हेतु सड़कों पर हम सब को बेवजह घरों से बाहर ना निकले और सोशल डिस्टेंस बनाने तथा मास्क का प्रयोग करते रहने की अपील करते आज भी आपको सड़कों पर आपको मिलेगा तो आवो हमारे सबके सुरक्षा व्यवस्था बनाने वाले पुलिस जवान जो आम नागरिकों की सुरक्षा पर डटे हुए पुलिस के जवानों को सलाम कर उनके हौसले को बढ़ाए और मिलकर फिर एक बार सम्मान करें।
पुलिस यानी सेवा सुरक्षा सहयोग कुछ लोगों का मानना है कि पुलिस आजकल सेवा बदमाशों की सेवा करती है जनता की सहयोग करने के बजाए गुमराह करते हैं किंतु ऐसा नहीं समझना चाहिए क्यो की कोई एक व्यक्ति की गलतीयो पर पुरा सिस्टम को बदनाम नहीं करनी चाहिए

शौर्य की बातें / ये क्या हो रहा है मेरे देश में अब इंसानों को गद्दार और देशभक्त की संज्ञा कानून नहीं कुछ लोगो द्वारा दिया जा रहा है ये कुछ लोग वो है जो समाज के अभिन्न अंग है जो दिनभर सभी कार्य सभी समाज के साथ मिलकर करते है ये कपडे के व्यापारी है जो अपने दूकान में आने वालो को ये नहीं पूछते की किस धर्म से हो जिस समाज से हो सभी को एक भाव से देखते है और कोशिश करते है कि उनके दूकान से कुछ खरीद कर जाए , ये होटल वाले है जो अपने ग्राहकों का धर्म पूछ कर अपने होटल में आने जाने से नहीं रोकते सभी को ग्राहक मानते है और इनकी सेवा करते है , ये मिल मालिक है जो अपने कर्मचारियों को काबिलियत के पैमाने में परख कर काम और पद देते है , ये राजनेता है जो चुनाव के समय सभी से हाँथ जोड़ कर अपने पक्ष में मतदान के लिए निवेदन करते है , ये वकालत से समबन्ध रखते है अपने यहाँ आने वाले हर फरियादी को न्याय के मंदिर से न्याय दिलाने के लिए प्रयासरत रहते है , ये बिल्डर है जो सभी को आदर भाव के साथ अपनी प्रॉपर्टी को बेचने के लिए उसकी अच्छे बताते है . कहने का तात्पर्य यह है कि जब सामन्य जीवन में अपनी आय बढाने के लिए किसी जाति धर्म का भेद भाव नहीं करते तो फिर सोशल मिडिया में आते ही कैसे किसी को भी देशभक्त या देश द्रोही करार दे देते है क्या तब उन्हें ये अहसास नहीं होता कि उनका चरित्र दोहरे मापदंड पर टिका हुआ है सोशल मिडिया में एक अलग रूप रहता है और सामाजिक जीवन में एक अलग रूप रहता है . आखिर कैसे इन लोगो की सोंच जहाँ कमाई के साधन की बात आती है तो समभाव के रूप में दर्शित होती है और जबी सोशल मिडिया पर ऊँगली चलती है तो आरोप प्रत्यारोप की झड़ी लग जाती है .
क्या हम अपना दोहरा चरित्र छोड़ कर एक ही मानसिकता से नहीं जी सकते . अगर हमें किसी जाति/ धर्म विशेष से नफरत है तो क्यों ना उनसे सामजिक जीवन में भी दुरी बना कर रखे ना तो उनसे बात करे ना तो उनके बनाये वास्तु को ईस्तमाल करे और ना ही उनको कोई सामान बेचे और ना ही उनके करीबियों से कोई सम्बन्ध रखे अगर ऐसा कर सकते है तो खुल कर अपने विचार समाज में और सोशल मिडिया में भी रखे अगर नहीं तो फिर क्यों दोहरे चरित्र के साथ जी कर अपने ही अस्तित्व को अपनी ही परछाई को धोखा दे रहे है .
कल देश के मशहूर पत्रकार रोहित सरदाना की मौत की खबर आयी . सभी को दुःख हुआ यह भी नहीं कह सकता क्योकि सोशल मिडिया में देखा कोई अच्छा हुआ कह रहा है कोई गलत हुआ करके दुःख जता रहा है कोई ऐसी तुलना कर रहा है कि हे भगवान् रोहित सरदाना की जगह फला व्यक्ति को ले जाना था नाम के मात्राओं में थोड़ी फेर बदल करके अपनी चतुराई तो पेश कर रहा है किन्तु किस ओर इशारा कर रहा सभी को समझ आता है किसी को कोरोना संक्रमण ने घेर रखा हो तो उसके पाप पुन्य गिनाने वालो की भी फौज सामने आ जाती है जैसे कि ईश्वर ने सबका हिसाब किताब उसे ही दे रखा हो और कह दिया हो कि जाओ इसे प्रचारित करो . मौत किसी की दुःख होता है और वो भी ऐसी मौत जिसकी जिम्मेदार वैश्विक आपदा और सही समय में सही इलाज का मिलना . वर्तमान समय में हमने कई अपनों को खोया ऐसे कई चेहरे सोशल मिडिया में दीखते है जिनसे हमारा कही न कही कोई सम्बन्ध रहा हो कभी व्यापारिक तो कभी सामजिक तो कभी दोस्ताना तो कभी पारिवारिक . कोरोना आपदा किसी पर भी भेदभाव नहीं कर रही है सभी के लिए एक काल बनकर आयी है और सभी की यही कोशिश है कि इस काल से जंग में जीत इंसानों की हो किन्तु यहाँ तो इंसान के जंग हारने के बाद उसके पाप पुन्य का फैसला और विश्लेषण शुरू होने लग गया है क्या यही समाज में रहना चाहते है हम क्या हमें ऐसे ही समाज की आवश्यकता है जहां उसके कर्मो का लेखा जोखा चंद मतलब परस्त लोग कर रहे है और अपने आप को समझदार समझने लगे है अपने आको को खुश करने के लिए अपनों के जाने के दुःख को भूल कर मौत को भी तुलनात्मक दृष्टी से देखने लगे है .
एक मौत का अर्थ सिर्फ एक इंसान की जान का जाना ही नहीं होता एक मौत के कारण किसी की खोख सुनी होती है तो कोई अनाथ होता है , कोई बहन अपने भाई को खो देती है , कोई दोस्त अपने जिगरी दोस्त से बिछड जाता है . एक मौत कई लोगो को दुःख पहुंचती है कई परिवार टूट जाते है कई लोगो के भविष्य अँधेरे की गर्त में चले जाते है . मेरी नजर में देश द्रोही वो है गद्दार वो है जिसे कानून ने सजा दी हो भारत के संविधान में उसे मुजरिम का दर्ज दिया हो उनकी मौत उनके कर्मो के आधार पर हो रहा है किन्तु कोरोना आपदा में हुई मौत का भी अगर विश्लेषण हो ये क्या सही है . शौर्यपथ समाचार पत्रकारिता की दुनिया में अपना मुकाम बनाने वाले रोहित सरदाना को श्रधांजलि अर्पित करता है और ईश्वर से ये प्रार्थना करता है कि काल के इस खेल से हमें और हमारे देश को बाहर निकाले . कोरोना से जंग में भारत की जीत हो सब कुशल से हो सभी का मंगल हो . जय हिन्द ( शरद पंसारी - संपादक , दैनिक शौर्यपथ समाचार पत्र )

दुर्ग / शौर्यपथ / दुर्ग जिले में 6 अप्रेल से जारी लॉक डाउन के बीच अब आम जनता का सब्र का बांध टूटता नजर आ रहा है, छोटी छोटी चीजों के लिए लोगो को तरसते देखा जा रहा है ! रोज मजदूरी कर जीवन यापन करने वाले परिवार अब सड़कों पर भीख मांग कर अपना काम चलाने को मजबूर हो गए है, तो वही मध्यम वर्गीय परिवार भी एक दुसरे की आगे क़र्ज़ के लिए हाथ फैलाते नजर आ रहे है ! पूर्व वर्ष में लगाए गए लॉकडाउन से सबसे ज्यादा निचले स्तर और मध्यम वर्गीय लोग प्रभावित हुए थे, और आज पहले से जयादा बद्तर स्थिति में जीवन यापन कर रहे है !
गंभीर सवाल है विचार करे सरकार क्योकि सिर्फ किसान किसान करने से नहीं चलेगा शहर में भी लोग बसते है
आज आम जनता का सवाल है शासन प्रशासन से अगर इस प्रकार से आपको लॉकडाउन करने का आदेश देता है, तो लॉकडाउन के दौरान घर का और दुकान बिजली का मीटर, टेलेफोन और मोबाइल का मीटर, दुकानों में काम करने वाले लोगो का सैलरी, बच्चों के स्कूल की फीस और घर में लगने वाला राशन ये सब शासन प्रशासन क्यों नहीं देता ! क्योकि हम तो शासन प्रशासन का सहयोग करने उनके आदेश का पालन करने घरों में बैठे है, कहा से आएगा ये पैसा !
शासन प्रशासन के लिए पूरी गंभीरता से विचार करने योग्य विषय
दुर्ग जिले की बात करे तो लगभग सभी ग्राम पंचायत में एक से दो मुक्तिधाम है इस हिसाब से दुर्ग जिले में लगभग 500 से अधिक मुक्तिधाम है जहा शवों का दाह संस्कार किया जाता है, लेकिन आज सभी के शवों का कुछ सिमित जगहों पर अंतिम संस्कार किया जा रहा है, तो स्वभाविक सी बात है कि वहा शवों की संख्या भी जयादा होगी और लोगो को आशंकित भी करेगी !
इसी तरह दुर्ग जिले में बहुत से छोटे और बड़े क्लिनिक और अस्पताल संचालित है, अब क्योकि मरीज और अस्पताल के बीच अब कोरोना टेस्ट आ गया है, जिसको लेकर नार्मल इलाज प्रतिबंधित है, अब मजबूरन लोगो को इलाज के लिए सिमित और शासन द्वारा चिन्हित अस्पतालों में ही आना पड़ रहा है, और शासन प्रशासन ने मेडिकल स्टोर पर कुछ दवाइयों को प्रतिबंधित किया हुआ है, जो बिना किसी डॉ की पर्ची के आपको नहीं दी जायेगी, इसलिए भी थोड़ी थोड़ी तकलीफ के लिए लोगो सिमित अस्पताल तक आना पड़ रहा है, तो स्वभाविक सी बात है कि जब सिमित जगह पर लोग इलाज करायेंगे तो भीड़ भी होगी और इलाज में लापरवाही भी होगी, और स्वाभाविक रूप से होने वाली मौतों के साथ कुछ तो भीड़ की वजह से इलाज के आभाव में भी मौत हो रही ! ऐसे में जिले भर की अनेक जगहों पर होने वाले दाह संस्कार को सिमित जगह पर किया जाए तो देखकर दहशत का माहौल बनना भी लाजमी है !
मै कोरोना के संक्रमण और उससे होने वाली मौतों पर सवाल खड़ा कर रहा हूँ जिसपर विचार तो जरुर किया जाना चाहिए, मै किसी भी प्रकार से ये नहीं कहता कि कोरोना है या नहीं है, लेकिन जिस तरह से अस्पतालों में बिना पीपीई किट और बिना दस्तानो के कोरोना मरीजों का इलाज जारी है, उसके मद्देनजर कोरोना मरीज को लेकर होने वाली गंभीरता, दहशतगर्दी और लॉकडाउन जैसी स्थिति से हमें बाहर जरुर आने का प्रयास करना चाहिए ! क्योकि गंभीरता और दहशतगर्दी के कारण जहा लोग मानसिक रूप से बीमार हो रहे है, तो वही लॉकडाउन के चलते आबादी का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी के मुहाने पर पहुच गया है ! जिसमे से आने वाले समय में कई लोग के पास अपराध का रास्ता अपनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा, क्योकि इंसान की तीन जरूरतें उनको अपराध की ओर खिचती है जहा वो अंजाम से बेपरवाह हो जाता है ! पहला अगर परिवार को भुखमरी का सामना करना पड़ रहा हो तो, दूसरा अगर उसका कोई अस्पताल में भर्ती हो और इलाज के लिए उसके पास पैसे ना हो तब और अगर फीस के आभाव में उसके बच्चों का स्कूल निकालने की बात हो तब, ये तीन ऐसी जरूरतें है जिसको लेकर कोई भी किसी भी हद तक जा सकता है !

    शौर्य की बातें / आपदा में अवसर का मतलब आज हर कोई धन कमाने के बारे में सोंचने लगता है किन्तु जगदलपुर के इस चिकित्सक ने आपदा में अवसर मानव सेवा के रूप में अर्जित किया है . बहुत ही कम सुनने में आया कि कोई चिकित्सक इस समय मुफ्त में कार्य कर रहा हो , डॉक्टर अपनी गरिमा का ध्यान रख कर कुछ गरीब लोगों का इलाज़ फ्री कर देंगे तो शायद कुछ लोगों का जीवन बचाया जा सकेगा। भगवान का नाम बाद में पहले डॉक्टर याद आता है शारीरिक पीड़ा होने पर भगवान् से पहले कोई याद आता है तो वो चिकित्सक ही होता है इंसान बड़ी उम्मीद के साथ उसके पास
उसका केवल यह कहना कि चिन्ता की कोई बात नहीं मन को सुकून मिल जाता है आधी बीमारी भाग जाती है . प्रसव से लेकर मृत्यु तक साथ निभाने वाला ,नन्हें दूधमुँहे बच्चे को भी उसके इलाज पर छोड़कर निश्चिंत यहां सब कोई बराबर होता है न कोई अमीर न कोई गरीब न जात- पात न धर्म का बंधन अपनी जीवन की डोर उस पर सौंपते हैं .रात हो या दिन हर वक्त इलाज को तत्पर दंगा-फ़साद हो या दुर्घटना लाइलाज बीमारी हो या सर्दी-जुखाम वह भी अपनी पूरी ताकत और ज्ञान के साथ अगर अच्छा हो जाए तो तमाम दुआएं मिलती है .हर शख्स धन्यवाद देता है चेहरे खिल उठते हैं पर अगर वह सफल न हुआ तो तोड़-फोड़ शुरु हो जाती है .वह ईश्वर तो नहीं है वह भी जब ऑपरेशन करता होगा
तो कामना करता होगा कि उसके हाथ कांपें नहीं तभी तो कहता है ऑपरेशन सफ़ल है आगे ऊपर वाले के हाथ में है जीवन बचाने वाले का धन्यवाद तो करना ही चाहिए कोशिश तो की .डॉक्टर का सम्मान करना सभी की जिम्मेदारी है आखऱि उसके भरोसे तो हम हैं ऊपर वाला तो नहीं आ सकता तभी तो उसने अपने प्रतिनिधि के रूप में उसे भेजा है .
एक ऐसे ही चिकित्सक है जगदालपुर निवासी डॉ. भंवर शर्मा जिन्होंने इस आपदा के समय मोबाइल द्वारा निशुल्क परामर्श देने की पहल की और आम जनता से अपील की कि जो भी होम आइसोलेशन में है वो निर्धारित समय में स्वास्थ्य सम्बन्धी परामर्श ले सकते है . डॉक्टर भंवर शर्मा के विषय में जिन्होंने मानव सेवा में अपना 10 वर्ष लगा दिया तथा मरीजों का साथ कभी फीस के कारण नहीं छोड़ा अपनी सामथ्र्य अनुसार हर संभव मदद की धन्य हैं ऐसे डॉक्टर, यदि मैं डॉक्टर होता तो मैं भी ऐसा करने का प्रयत्न करता.
नरेन्द्र भवानी के कलम से - संभाग प्रमुख ( जगदलपुर - दैनिक शौर्यपथ समाचार )

शौर्यपथ नजरिया / ऑक्सीजन सिलेंडर पर गुजरात के नेताजी ने अपनी फोटो क्या लगाई बवाल मच गया है। इसकी आलोचना के साथ लोग तरह-तरह की टिप्पणियां कर रहे है। किंतु इस पर मेरा अपना एक नज़रिया है। मेरा मानना है कि कोई अपने जेब के पैसे खर्च कर सेवा कर रहा है तो सेवा का महत्व होना चाहिए। 200 बिस्तरों का कोविड अस्पताल बनाना और मरीजों को सिलेंडर उपलब्ध कराना कोई छोटा काम नही है। ऐसे में अगर वो पैसे खर्च कर नेम और फेम चाहता है तो इसमें गलत क्या है। यहा तो ऐसे भी है जो भ्रष्टाचार से करोड़ों-अरबों कमाकर भी आज के इस बुरे दौर में घर के भीतर दुबके बैठे है। मित्रों, मोदी जी हो या भुपेश बघेल जी किस सरकारी योजना में इनकी फोटो नही है यह बताइये? हमने तो मोबाइल बस्ते,राशनकार्ड तक में कभी रमन सिंह जी फिर भुपेश बघेल जी की फोटो देखी है।
इतना सब तर्क करने के पीछे मेरा यही मकसद है कि सेवा में लगे किसी व्यक्ति की आलोचना नही होनी चाहिए। अगर नाम और सम्मान के मकसद से ही सही अगर कोई जरूरतमंदों की मदद कर रहा है तो उसे सराहे। एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि हमारे देश का सरकारी सिस्टम कोरोना से लड़ाई में बेहद कमजोर है। आज जो भी बेहतर स्थिति बन रही है उसके पीछे कही न कही विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, स्वयंसेवी लोगों का अमूल्य योगदान है। ऐसे में उनसे जुड़े किसी तुच्छ विषय को अगर कोई बहस का मुद्दा बनाता है तो निश्चित ही वे हतोत्साहित होंगे। यह मेरी सोंच है, इस मुद्दे पर आपकी राय क्या है बताये?
( देवेन्द्र गुप्ता के फेसबुक वाल से )

दुर्ग / शौर्यपथ / प्रदेश में कांग्रेस की सरकार , दुर्ग विधान सभा में कांग्रेस के विधायक , दुर्ग निगम में कांग्रेस की सरकार होने के बाद भी अगर दुर्ग विधायक और महापौर अपने प्रशासनिक अधिकारियों की शिकायत लेकर जायेंगे तो क्या समस्या का हल निकल जाएगा क्या दुर्ग में जो आपदा आयी है वो कम हो जायेगी . दुर्ग इस समय विकट परिस्थितियों में जी रहा है . आम जनता दो वक्त के अच्छे भोजन के लिए तरस रही है बावजूद इसके जिला प्रशासन के साथ है . आये दिन निजी अस्पतालों की मनमानी , दवाइयों की कमी , बेड की कमी , शमशान घाट में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी की कमी , स्थान की कमी , घर में पौष्टिक भोजन का अभाव , इलाज के अभाव में मौत के आंकड़ो का लगातार बढ़ना इन सब विपरीत स्थिति के बाद भी दुर्ग जिला प्रशासन अपने जिलाधिकारी के आदेश का पालन करते हुए २४ घंटे कार्यरत है . आज की तारीख में हर शासकीय कर्मचारी २४ घंटे की ड्यूटी में है कभी भी किसी भी समय कार्य के लिए बुलाने का आदेश हो रहा है . इस विषम परिस्थिति में जिला प्रशासन के हर अधिकारी कोरोना से जंग लड़ने की कोशिश कर रहे है , सामजिक संस्थाए अपने अपने स्तर पर मदद कर रही है , ऐसी ही कुछ सामजिक संस्थाओ ने निगम के द्वारा गरीबो को निःशुल्क भोजन उपलब्ध करा रहा है , अस्पतालों में साईं प्रसाद द्वारा निःशुल्क भोजन तो जन समर्पण समिति के सदस्यों द्वारा रेलवे स्टेशन में गरीबो को निर्बाध भोजन की व्यवस्था कराने में लगा है .
ये सही है कि स्थिति काबू से बाहर हो रही है बावजूद इसके दुर्ग जिलाधीश डॉ. नरेन्द्र भूरे लगातार कोशिश कर रहे है कि हर ज़रूरतमंद को समय से इलाज मिले इसके लिए निरंतर नए नए कदम उठा रहे है . निजी अस्पताल सहित शासकीय व शासन के अधिकृत अस्पताल में सभी श्रेणी के बेड बढाने की कवायद कर रहे है . स्वास्थ्यकर्मी अपनी जान की परवाह किये बिना सेवा दे रहे है . हालाँकि ऐसे समय में कुछ निजी नर्सिंग होम के संचालको द्वारा मरीजो के परिजनों से मनमानी शुल्क लेने की भी शिकायत मिल रही है जिस पर प्रशासन कार्यवाही भी कर रहा है , दवाइयों की कालाबाजारी रोकने नित नए नए कदम उठाये जा रहे है . सीमित संसाधनों के बाद भी सुविधाओ का विस्तार किया जा रहा है .
ऐसे विपत्ति के समय दुर्ग को हमर दुर्ग कहने वाले विधायक अरुण वोरा और उनके द्वारा दुर्ग निगम में चुने गए महापौर धीरज बाकलीवाल द्वारा जिला प्रशासन की शिकायत प्रदेश के मुख्यमंत्री से करना कहा तक उचित है . शिकायत करना नहीं करना उनका स्वाधिकार है पूर्व में भी दुर्ग विधायक एवं महापौर द्वारा बाजार अधिकारी की शिकायत तात्कालिक आयुक्त बर्मन से , तात्कालिक आयुक्त बर्मन की शुइकायत जिलाधीश से एवं सुनवाई ना होने पर मुख्यमंत्री से , अमृत मिशन की लचर कार्यप्रणाली पर अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करना ये समय समय पर सही भी हो सकता है किन्तु वर्तमान स्थिति में जब जिला प्रशासन के साथ क्या अमीर क्या गरीब हर कोई खडा है और दुवा कर रहा है कुछ अच्छा होने की ऐसे समय में जिला प्रशासन की शिकायत , स्वास्थ्य विभाग की शिकायत कही ना कही उन अधिकारियों / कर्मचारियों का मनोबल तोड़ रही है जो अपनी जान जोख़िम में डाल कर २४ घंटे कार्य कर रहे है .
आज दुर्ग निगम क्षेत्र के ऐसे कई मोहल्ले है जहाँ सेनेटाईजर तक नहीं हुआ है , कई परिवार ऐसे है जो तकलीफों में है , कई परिवार ऐसे है जो कु व्यवस्था से अपनों को खो चुके है ऐसे समय में उनका संबल बढाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी निगम के महापौर और क्षेत्र के विधायक की रहती है किन्तु जिस तरह दो दिन पूर्व दुर्ग विधायक और निगम के महापौर ने जिले के स्वास्थ्य विभाग की लचर व्यवस्था की शिकायत मुख्यमंत्री से की और उसे प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सभी को सूचित किया इससे ये तो यही संकेत जाता है कि दुर्ग विधायक स्वयं ये मानते है कि भूपेश सरकार के अंतर्गत अधिकारी लापरवाह हो गए है और स्वास्थ्य मंत्री की विभाग में कोई पकड़ नहीं क्योकि कुछ दिन पहले ही प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव दुर्ग में मेराथन बैठक लेकर स्थिति के जल्द सुधरने की बात कही थी और अधिकारी उस दिशा में कलेक्टर भूरे के मार्गदर्शन में कार्य कर भी रहे है .

दुर्ग / शौर्यपथ  ( सम्पादकीय ) / दुर्ग शहर आज संक्रमण की चपेट में है , अस्पताल में बिस्तर नहीं , मुक्तिधाम में जगह नहीं , मेडिकल में दवाई नहीं , रसोई में राशन नहीं कुछ ऐसा ही मंजर है वर्तमान में दुर्ग शहर का किन्तु दुर्ग शहर की जनता ने जिन प्रतिनिधियों को चुना आज वो सब नदारद है चाहे भाजपा से राज्य सभा सांसद डॉ. सरोज पाण्डेय हो , लोकसभा सांसद विजय बघेल हो , दुर्ग के विधायक अरुण वोरा हो या फिर विधायक के निर्देश पर चलने वाले महापौर धीरज बाकलीवाल हो आज लॉक डाउन के ५ दिन हो गए शहर की स्थिति बद से बद्दतर हो रही है किन्तु इनमे से कोई भी जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं जो जमीन में आकर आम जनता की परेशानियों को हल करने की कोई पहल कर रहा हो . साल भर हो गए कोरोना संक्रमण की बीमारी के दहशत को किन्तु इन साल भर में किसी भी जनप्रतिनिधियों द्वारा कोई ऐसा कदम उठाया गया हो जो समाज के लिए एक मिसाल बने . सांसद बघेल भिलाई तक सिमिति है दुर्ग की जनता से उन्हें सिर्फ इतना ही कार्य की वोट के लिए मैदान में उतरते है जबकि वो ये भूल गए कि दुर्ग विधानसभा की जनता ने उन्हें बहुमत से विजयी बनाने में अपना योगदान दिया है किन्तु बयानबाजी के अलावा आम जनता के स्वास्थ्य के लिए चर्चो के अलावा कोई सार्थक पहल की हो ऐसा कही से नजर नहीं आता . डॉ. सरोज पाण्डेय जिनकी राजनीती की शुरुवात दुर्ग से हुई और केन्द्र में एक ताकतवर नेता के रूप में पहचान बनाई किन्तु क्या उनके द्वारा दुर्ग की जनता के स्वास्थ्य के लिए केंद्र से कोई विशेष मदद के लिए कदम उठाया गया है आज दुर्ग की जनता बेबस ससी नजर आ रही है शासकीय अधिकारी अपनी ड्यूटी निभा रहे है जो अच्छा करेगा उसे प्रमोशन मिलेगा जो कुछ नहीं करेगा उसे स्थानान्तरण इससे ज्यादा उन अधिकारियों के साथ कुछ नहीं होना ये अधिकारी जनता की पसंद के नहीं शासन के भेजे हुए अधिकारी है आज यहाँ कल वह किन्तु दुर्ग की जनता ने जिन प्रतिनिधियों को अपना अमूल्य मत दिया और इस मुकाम तक पहुँचाया वो प्रतिनिधि आज कहा है जब मुक्तिधाम में शव जलाने की जगह नहीं , अस्पताल में बिस्तर नहीं , रसोई में खाना नहीं .


दुर्ग शहर की जनता ने दुर्ग के विधायक के रूप में अरुण वोरा को चुना हजारो मतों से विजयी बनाया किन्तु आज साल भर की विकट स्थिति में विधायक वोरा द्वारा शहर को स्वास्थ्य के नाम पर क्या दिया गया , शिक्षा के नाम पर क्या दिया गया वर्तमान से में जो स्थिति है उस पर विधायक क्या प्रयास कर रहे है . दुर्ग में जनता कोरोना से नहीं कोरोना का सही समय पर समुचित इलाज के अभाव में दम तोड़ रही है . शहर के विकास के लिए जितनी आवश्यकता सड़क नाली की होती है उतनी ही आवश्यकता , स्वास्थ्य और शिक्षा की होती है दुर्ग के स्वास्थ्य विभाग की हालत अब सारी दुनिया के सामने है हर कोई बेबस है मजबूर है क्योकि ना सही समय पर इलाज हो पा रहा है और ना सही समय पर दवा मिल पा रही है . कौन दोषी है स्थानीय विधायक , सांसद ,राज्य सरकार या फिर केंद्र सरकार जिम्मेदार जो कोई भी हो किन्तु दुर्ग की जनता प्रति पल एक डर में जी रही है कि कब कहा से कौन सी खबर आ जाए कब कोई अपना हमसे बिछड जाए इसी शंका और भय में आज दुर्ग के लोग जी रही है . शहर के महापौर को इसमें कोई दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योकि ये तो सभी जानते है कि दुर्ग के महापौर जनता की पसंद के नहीं विधायक की पसंद के है और हर कार्य विधायक की मंशा के अनुरूप करते है .
अब सोंचने का समय आ गया है कि इस विपत्ति में बयानबाजी करने वाले नेताओ का सच सबके सामने है अब आवश्यकता है ऐसे को चुने जो आम जनता की तकलीफों में साथ रहे हौसला बढ़ाये ना कि बंद कमरों में मीटिंग करे और उस मीटिंग की बात को सोशल मीडिया में प्रचारित कर अपने आप को जनता का हितैषी बताये . आज दुर्ग वासियों के लिए विपत्ति की घडी है ईश्वर भी आज परीक्षा ले रहा है जो पास हुआ वो कल का सूरज देखेगा जो फेल हुआ वो इश्वर के चरणों में जाएगा जितनी अँधेरी रात होगी उजाला भी उतनी ही सुहानी होगी . अब भी वक्त है दुर्ग की जनता के हितो के लिए बिना राजनितिक के बिना दोषारोपण के एक सार्थक कदम बढाए और संविधान में दी गयी शक्तियों के सहारे दुर्ग की बदहाल व्यवस्था को पटरी पर लाये एक बार फिर दुर्ग की जनता के दिलो में अपनी जगह बनाए .

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